SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१ निमित्तनैमित्तिकभाव के आधार पर कार्यकारणभाव व्यवस्था की सगति हो जाने पर भी उसका कुछ उपयोग नही होता है अत इसमे भी स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष परिणमन की तरह कार्यकारण व्यवस्था पर विचार करना आवश्यक नहीं है। लेकिन एक ऐसा भी स्वपरसापेक्ष परिणमन होता है जिसमे निमित्त नैमित्तिकभाव के आधार पर विद्यमान कार्यकारणभाव व्यवस्था पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। स्वपरसापेक्ष परिणमन मे उपादानोपादेयभाव के आधार पर विद्यमान कार्यकारणभाव की व्यवस्था भी जहा उपयोगी होती है वहा उस पर भी विचार करना आवश्यक हो जाता है जैसे बालुका के मिश्रण से रहित मिट्टी से ही घट का निर्माण हो सकता है बालुका मिश्रित मिट्टी से नहीं, इसी तरह भव्य ही मुक्ति पा सकता है अभव्य नही-इत्यादि रूप से लोक मे और आगम में विचार किया जाता है । इस पर विशेष विचार न करके निमित्ताश्रित कार्यकारणभाव व्यवस्था पर ही यहा विचार किया जा रहा है। इसके सम्बन्ध मे सर्वप्रथम ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करता हूं जिसमे परसापेक्षता विद्यमान रहने के कारण यद्यपि निमित्तनैमित्तिकभाव के आधार पर कार्यकारण व्यवस्था का सद्भाव रहता है परन्तु उसकी कुछ उपयोगिता नही है । इनमे प्रथमत' आकाश द्रव्य का उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है । __ आकाश द्रव्य का उदाहरण आकाश द्रव्य का स्वभाव आत्मा के स्वपरप्रकाशक स्वभाव की तरह स्व और विश्व के अन्य सभी पदार्थों को अवगाहित करने का (अपने अन्दर समा लेने का) है और चूकि
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy