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________________ (३०) पूर्वोक्त आठ कर्मों का केवलज्ञानोत्पत्ति के समय में क्षय होता हैकिन्तु नामकर्म, आयुष्ककर्म, वेदनीयकर्म, गोत्रकर्म वाकी रहते हैं, उनकी स्थिति जबतक है तबतक शरीरधारी होने से आहार लेना, विहार करना, उपदेश देना आदि क्रिया, अवशिष्ट कर्म के क्षय नाश] के वास्ते ही की जाती हैं। अग्लानि से भाषावर्गणा [शब्दसमूह के पुद्गल के क्षय करने के निमित्त तीर्थकर उपदेश करते हैं और उस उपदेश पर गणधरलोग द्वादश अङ्ग [द्वादशाङ्ग] बनाते हैं। इस समय में उन अङ्गों में से ग्यारह अङ्ग तो विद्य-५ मान हैं किन्तु बारहवाँ दृष्टिवादनामक अङ्ग अब नहीं मिलता। ग्यारह अङ्ग अब जो विद्यमान हैं उनको हमलोग मानते हैं, किन्तु दिगम्बरों ने इन मूल सूत्रों को विच्छिन्न मानकर अन्तराया टानलाभवार्यभोगोपभोगगाः। हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥७२॥ कामो मिथ्यात्वमक्षानं निद्रा चाविरतिस्तथा। रागो द्वेपश्च नो टोपास्तेपामष्टादशाप्यमी ।। ७२ ।। । आचाराङ्ग,२सूत्रकृताह, स्थानाङ्ग,४ समवायाङ्ग, ५भगवतीसूत्र, ६ ज्ञाताधमकथा, ७ उपासकदशाङ्ग, ८ अन्तकृत्दशाङ्ग, ९ अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग, २० प्रश्नव्याकरण, ११ । विपाकत, १२ दृष्टिवाद, ये बारह अङ्ग हैं।
SR No.010367
Book TitleJain Tattva Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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