SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आधार रखती है; इसलिए उन्हींकी व्याख्या करने की विशेष आवश्यकता है। क्योंकि देव, गुरु और धर्म युक्तियुक्त जिसमें वर्तमान होते हैं और उसी रीति से उसमें यदि गुण तथा आचार भी देखे जाएँ तो वह ग्राह्यही होता है अन्यथा नहीं । तो अब उद्देश्य क्रमानुसार पहिले देवका ही स्वरूप कहना उचित है क्योंकि ज्ञेय पदार्थका स्वरूप विना मालूम हुए श्रोताओं के लाभ का संभव ही नहीं है; अतएव आहेत दर्शनरूपी सुन्दर महल की, नीवरूपी देव का ही पहिले स्वरूप कहूँगा; फिर उसके बाद गुरु का, पश्चात् देव गुरुओं से कहे हुए धर्म का लक्षण, स्वरूप और उसकी आराधना करने का प्रकार निरूपण करूँगा। लौकिक और लोकोत्तर रूप से देव दो प्रकार के होते हैं । उनमें भुवनपति, व्यन्तर, वाणव्यन्तर, भूत, पिशाच, ज्योतिष्क और वैमानिक आदि अनेक प्रकार के लौकिकदेव होते हैं; जो सर्वज्ञ न होने के कारण रागद्वेषादि से दूषित रहते हैं। यदि उनकी ही आराधना की जाय तो मोक्षरूपी फल कदापि नहीं प्राप्त हो सकता। ____ अर्हन * शब्द से जैनशास्त्र में लोकोत्तर देवही __*श्रीभद्रबाहुस्वामिरचित 'आवश्यकनियुक्ति' में लिखा है कि रागहोसकसाए इन्दिआणि य पंचवि । परीसहे ओवसग्गे नामयंता नमोऽरिहा ॥ ३२॥ इन्दियविसयकसाए परीसहे वेअणाउवस्सग्गे । एए अरिणो हन्ता अरिहन्ता तेण वुच्चंति ॥ ३३ ॥ to .
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy