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________________ ( २ ) सापेक्षता लक्ष्य में रहती, तो कदापि वैर, विरोध, ईर्षा, अनादरता, दर्शनभिन्नता, विवेकशून्यता, अल्पज्ञता, निर्नाथता, छिन्नभिन्नता और खण्डन मण्डन आदि दूषण उत्पन्नही नहीं होते; जिनका इस समय हमलोग अनुभव कर रहे हैं, उस अनुभव होने का यह समयही नहीं आता । लेकिन फिर भी जो आज कितनेही भारतभूमि के भूषण नररत्न, समस्त धर्मों की एकता की रक्षा और आर्यावर्त भूमि के गौरव को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील हो रहे हैं, यह बड़े आनन्द का विषय है । पहिले भी जिस लेखक ने कलकत्ते में इसी परिषद के प्रथम अधिवेशन में एक 'जैनतत्वदिग्दर्शन' नाम का निबन्ध श्रोताओं को श्रवण कराया था वही इस समय भी आर्हतधर्म के संबन्ध में पक्षपात को जलाञ्जलि देकर पूर्वोत महाशयों के प्रयत्न को अमूल्य समझ तत्वज्ञानरूप निबन्ध पढ़ने को उपस्थित हुआ है । जैनसिद्धान्तमहासागर से मेरे हृदयरूपी आलवाल ( क्यारी) में अप्रमत्तभाव रूपी सारणी ( नाली ) से अब तक विन्दुमात्र भी नहीं आया है; इसलिए में विन्दुमात्र भी कह सकूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करना भी ठीक नहीं है । अतएव मैं अपने बिन्दु से भी न्यून वोध के अनुसार आर्हतदर्शनरूपी महामहल की नीवें. दीवार, और धरन रूपी देव, गुरु और धर्म की यथाशक्ति विवेचना करूँगा । क्योंकि जिस इमारत की नीव, दीवार, और धरनही मजबूत नहीं है वह घर 'अकस्मात् गिर जाता है; और उसमें रहनेवालों के मन में भी उसका विश्वास नहीं रहता । इसरीति से दर्शन रूपी महल की मज़बूती - देव, गुरु और धर्मही पर
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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