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________________ (३९) है वह मूर्ख काच को ही हीरा समझता है । और देव, गुरु तथा धर्म का सम्यग् ज्ञान न करने से अपने जन्म को भी व्यर्थ खो देता है । क्योंकि जैसे क्रोधकरनेवाला पुरुष क्रोधी गिना जाता है, वैसे ही लोभी, मानी, मायावी भी अपने दुर्गुण के ही कारण से कलङ्कित होता है । इसलिये सभी जीवों को अठारह पापस्थान, चार विकथा और पांच प्रमाद तथा पञ्चेन्द्रिय के २३ विषय, एवं ५ मिथ्यात्व को त्याग करना परमावश्यक है । अर्थात् देव, मनुष्य, तिर्यश्च और नरकगति रूप से संसार के चार भेदोमेंसे देव और मनुष्य गतिके प्राप्त करने के लिये-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, दया, भक्ति, दान, शील, सत्य, सन्तोष, क्षमा, आर्जव, मार्दव, निर्लोभता, निर्मायिता, परोपकारता, इन्द्रियनिग्रहता, न्यायप्रवणता, गुणानुरागता, पापभीरता, सरलता, सनाथता, लजालुता, विनयता, विवेकता, सौम्यता और तीर्थसेवादि सामान्य गुणगणों की आवश्यकता है । इसलिये भन्यजीवों को इन सद्गुणों की आराधना अवश्य करनी चाहिये । क्योंकि शठता, निर्विवेकता, अनाथता, स्वच्छन्दता, अल्पज्ञता, उन्मत्तता, वाचालता, संग्रहशीलता, दुष्टाचारता, व्यभिचारता, निर्दयता, मृषावादिता, मांसभोजिता, सदा वैरभावता, अन्तःकरण की मलिनता, क्रोध, मान, माया और लोभादि दुर्गुणविशेष के होने से तो नरक और तिर्यश्च गति का ही जीव भागी होता है। इसका कारण यह है कि सद्गुणों से पुण्यबन्ध होता है और दुर्गुणों से पापबन्ध होता है। इसलिये देवगति मनुष्यगतिरूप संसार का कारण पुण्य, और तियश्चगति
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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