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________________ (३१). आत्मा यधपि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य है, तथापि पर्यायार्थिक नय का आश्रयण करके अनित्य मानना पड़ता है। जैसे संसारस्थ जीव, पुण्य की अधिकता के समय, जब मनुष्य योनि को छोड़कर देवगति को प्राप्त होता है तो उस समय देवगति में उत्पाद.. और मनुष्यपर्याय का व्यय ( नाश ) हुआ; किन्तु दोनों गति में चेतनधर्म अनुगत होने से चेतन तो ध्रौव्य ( स्थायी ) ही रहा । अव यदि एकान्त (केवल ) नित्य माना जाय तो उत्पन्न किया हुआ पुण्यपुन, पुनः जन्ममरणाभाव से व्यर्थ ही हो जायगा, और एकान्त (केवल) अनित्य ही माना जाय तो पाप करनेवाला अन्य होगा और उसका फल भोगनेवाला अन्यही होगा। अत एव आत्मा में कथञ्चित् नित्यत्व और कथञ्चित् अनित्यत्व का स्वीकार अवश्य करना होगा। इसी तरह जड़पदार्थ में भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप से तीनों दशाएँ घटसकती हैं। जैसे मृत पिण्ड से जिस समय स्थातक, कोश, कुशूल आदि बनकर घट बनता है, उस समय मृत्पिण्ड का नाश और घट का उत्पाद होता है, किन्तु मृद्रव्य, दोनों में अनुगत होने से धौव्य ही रहता है। लेकिन जैनेतर दर्शनकारों ने आकाश को एकान्त नित्य और दीप को एकान्त अनित्य माना है; परन्तु वस्तुतः उसमें भी पूर्वोक्त लक्षण ठीक ठीक घटता है। क्योंकि घटाकाश की उत्पत्ति के समय पटाकाश का नाश, और घटाकाश का उत्पाद होना माना जाता है, किन्तु दोनों में आकाशत्व अनुगत धौव्यही है । और उसीतरह दीप में पूर्व कलिका नाश,
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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