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________________ (३०) प्राप्ति की थी। इसीलिये सब जीवों को भावधर्म की आराधनां विशेषरूप से करना उचित है। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परि- ' प्रहरूप पांचों पापों के कारणों को रोकना और हटाना भी पांच प्रकार से धर्म गिने गये हैं। इस प्रकार धर्म के कारणों को धर्म ही (उपचार से ) मानकर धर्म के अनेक भेद माने गये हैं, किन्तु इन धर्मों का ज्ञान, स्यावाद के ज्ञानाधीनही है, इसलिये स्यादवाद याने अनेकान्तवाद का स्वरूप 'प्रदर्शन कराया जाता है एक वस्तु में सापेक्षरीति से नित्यत्व, अनित्यत्व, प्रमेयत्व, वाच्यत्वादि अनन्तधर्मों को मानना ही स्यादवाद का स्वरूप है। स्यादवाद एक ऐसी चीज है कि जिसको सभी दर्शनकारों ने किसी न किसी रूप से आश्रयण किया है और जैनदर्शन का तो अनेकान्तवाद दूसरा नाम ही है, क्योंकि जैसे सत्यमार्ग के विना इष्ट स्थान की प्राप्ति नहीं हो सकती, वैसेही स्यादवाद की कृपाविना पदार्थसार्थ का सच्चा स्वरूपही दृष्टिगोचर नहीं हो सकता । इसीसे वाचकमुख्य श्रीउमास्वाति महाराज ने स्यादवादनरेन्द्र की आज्ञा को अपने अन्तःकरण में प्रतिवि'म्बित करके द्रव्य का लक्षण इस तरह किया है " उत्पाद-व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्' । अब यह लक्षण, 'प्रथम आस्तिक मात्रों के माने हुए आत्मापर ही स्याद्पाद की रीति से इस तरह घटाया जासकता है-याने
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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