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________________ कल्पना-लोक का सहारा लेकर समाज को कुछ समय के लिए आनन्दानुभूति करा सकता है। लेकिन स्थायी अलौकिक आनन्द नहीं दे सकता। इस प्रकार के साहित्य, कुछ समय भले ही अपना अस्तित्व बनाये रख सकें लेकिन कालान्तर में उनका कोई साहित्यिक मूल्य न होगा और न ही वह शाश्वत मूल्यों की अमिट छाप छोड़ने मे समर्थ हो सकेगा । युग और मान्यताओं के साथ-साथ युगचेतना भी स्वाभाविक रूप से अपना स्वरूप बदलती रहती है। हर एक भावी युग की युगचेतना वर्तमान से अलग नये रूप में आती है। युगचेतना का क्षेत्र इतना बड़ा होता है कि उसे सर्वांगीण रुप से साहित्य से जोड़ पाना किसी साहित्यकार के लिए कठिन है। फिर भी साहित्य में युगचेतना की अभिव्यंजना सरलतापूर्वक ही हो सकती है क्योंकि साहित्यकार यथार्थ जगत का यथार्थदर्शी होता है। प्रत्येक युग की अभिव्यक्ति का माध्यम अलग-अलग हुआ करता है। परम्परागत शिल्प की भले ही पुनरावृत्ति हो परन्तु भाव और अभिनव में मौलिक भेद परिलक्षित होता है। कभी-कभी तो प्रत्येक युग की भावविभूतियाँ अपने अतीत से इतना अधिक अलग होती हैं कि जिनके कारण भावाभिव्यक्ति की कला भी परिवर्तित दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार हर युग की गतिशील पृष्ठभूमि पर युग चेतना का परिवर्तन सहज एवं स्वाभाविक प्रतीत होता है और उसके प्रभाव से साहित्य अपने को अलग नहीं रख पाता है अर्थात् पूरी तरह से प्रभावित होता है। परम्परा और चेतना परम्परा अत्यन्त व्यापक शब्द है। मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से इसका सम्बन्ध हैं। धर्मशास्त्र, दर्शन, विज्ञान, व्यवहार, कला, समाज साहित्य के क्षेत्र में परम्पराओं के अनेक रूप दृष्टिगत होते हैं। परम्परा 181
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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