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________________ जैनेन्द्र का शिल्प इन स्थलों पर इतना सजीव है कि पाठक की कल्पना-शक्ति जागृत हो उठती है और वह विश्वास के भ्रम का शिकार हो जाता है। कथावस्तु में नाटक के समान ही पात्रों की क्रियाओं में विभिन्न ध्वनियों तथा पात्रों के हाव-भाव, मुख-मुद्राओं को कोष्ठक में रखकर संक्षिप्तता तथा गति की सिद्धि की गयी है। नाटक के समान कथावस्तु में संघर्ष को स्थान दिया गया है। जैनेन्द्र ने वस्तु नियोजन में संयोग-तत्व का प्रयोग किया है। अंग्रेजी आलोचक हडसन ने कहा है कि हम कथावस्तु में संयोग का समावेश मात्र इस आधार पर नहीं कर सकते कि वे वास्तविक जीवन में भी घटित होते हैं। उनका मत है कि कथात्मक साहित्य बिलकुल वास्तविकता जैसा नहीं होता। कथावस्तु के प्रस्तुतीकरण में जैनेन्द्र जी ने परम्परागत शैली का अनुगमन किया है। वे कथा कहते हुए पाठक को सम्बोधित करते चलते हैं। 'परख' में यह प्रवृत्ति बहुत है। 'त्यागपत्र' का आरम्भ भी सम्बोधन शैली से होता है। सुखदा भी बीच-बीच में पाठको को संबोधित करती चलती है। मानो सम्मुख बैठे लोगों को अपनी कहानी सुना रही हो। 'त्यागपत्र' में कहानी सुनाते समय हामी भरने की लोक रीति का भी पूर्ण प्रयोग हुआ है, यह जैनेन्द्र की अपनी मौलिक देन है। प्रमोद अपनी बुआ को अपने परिवार और जीवन की परिवर्तित परिस्थितियों के ब्योरे सुना रहा है। बीच-बीच में प्रमोद चुप बैठी बुआ से हामी भरवाने के लिए कहता है 'सुनती हो? क्यों बुआ ? तुम मत बोलो; लेकिन मैं तुम्हें बताये देता हूँ..........आदि। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में पाठक एक करुणा की आर्द्रता का अनुभव करता है, 29. The defence which is Something offered for the free use of coincidence that Concidences to happen in real lige is searcely to the point, for the adrise of the dictum that truth is stranger than fiction is that fiction should not be so strange as truth". (Willion Heary hundson - An Introduction to the Study of Literature, Page 186) 30 जैनेन्द्र कुमार - त्यागपत्र, पृष्ठ-56 [169J
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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