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________________ वे दो १०१ बाधक है और जिसके लिए मै जिम्मेदार नहीं है । वह जिमे पत्नी कहा जाता है, साथिन नही है । और हम दोनो एक-दूसरे का साथ नहीं दे मकते तो विवाह फो समाधि वनापार उसके नीचे स्वय शव बनकर जीने का कोई अर्थ नहीं है । विमला आज़ाद है और तभी से आजाद है, जब द्रौपदी का मेरा परिचय हुमा । उस पर मेरा कोई अधिकार, कोई पआरोप नहीं गया है। मैं..." ___ "तुम मे नैतिक साहस देखता हूँ अजीत । और यह अच्छा है। लेकिन फिर ये चोरी-सूट क्यो चलता रहा?" "आप नमक न पाते । माता-पिता अगली पीटी को समझ नही पाते हैं।" ___ "यह जोसम भी तुमने गयो नहीं उठाया ? विद्रोह कायरता से तो अच्छा रहता है।" "माज में जहर यह सोच रहा हूँ कि कायरता हमने क्यो दिखनाई । हो रागाला हे नि पायरता वह न हो, करुणा रही हो । प्राप मोगो का चित्त हम नहीं दुवाना चाहते थे।" "अब तुम देखते हो कि चित्त दुमा नहीं है, फट गया, टूट हो गया है। उस वक्त तुम लोग खुलकर सामने प्रा गए होते तो मैं ममता दि गुम् दुममा ध्यान है । और दुःस देने की कीमत देकर तुम लोग लको एकदम बाद दे देना चा तोट टालना नहीं चाहते । मै उसको साहन महता । पाहे सहमत न होगा और विरोध भी फरता, पर गोलर ही भीतर उसको सराह गमता । लेनिन जिसको तुम पारणा पहोलो, पारना नहीं थी, लिप्सा पी लिप्यागी सीने तुम्हें फापर बनना पला । पौर पनीने जररी होता है कि तुम पर रान्ता छोडो, सीधा रास्ता परलो।" "गुनिा, वायुनी ।" मान पर प्रजीत ने कहा, "सबने का राता हमारे लिए सीधा नही है। अंग में राले पर सीधा पलने धौर उगो को जीता गिर करने में नए जवानी है और उस चुनौती
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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