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________________ वे दो εε "अपने किस बारे में बाबूजी ? यह कि नियम हम कम देख पाते है और स्नेह को ज्यादे मानते है । यह बात तो सच है ।" " विमला को तुम स्नेह नही करते ?" "नही ।" "व्याह तो किया है। "हा ।" י! 1 'वह भी तुम्हे स्नेह नही करती ?" "वह नही सकता ।" "स्नेह को तुम मानते हो ?" "ती को मानता ह {"1 "द्रौपदी को तुम कव से जानते हो ?" "श्राप क्या पूछ रहे हैं ?" "नही, बतायो । वह उस समय सग्रह वर्ष की रही होगी । इटर मे थाई थी और तुम नये लेक्चरार लगे थे । तब से ही न यह स्नेह ग्रनुभव हुआ होगा । उससे पहले तुम्हारे स्नेह की क्या दशा थी ? माफ करना यह जिरह नहीं है । स्नेह को समझने की बात है । स्नेह तो जीवन है, क्यो हैन ? अर्थात् उसके बिना जीना हो नही पाता । यौवन को तुम महत्व देते हो और ठीक देते हो । लेकिन स्नेह के बिना गंगव मोर वायंग्य भी नही कट सकता है । घजीत, तुम लोग स्नेह पर अपना पाणिपत्य मानते हो | यही यौवन की भूल है । ग्रव सोचो और बताओ दीपक इंटर में घाई और तुम कालेज में आए तो उसने पहले स्नेह तुम भी के जीवन में अनुपस्थित तो होगा न ? अपने-अपने वृत्त - रहा होगा ।" पीत को नहीं लगा । उसने पहा, "श्राप गया चाहते है 7" 'तुमपो बुलाया है और बाप कुछ गमम्ना सोचना चाहता हू । तुमने परिस्थिति ऐसी है" बात आपने सोच ने सगे नहीं बढ़ा दिया है ?
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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