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________________ झमेला लगाना होगा। इसके काफी दिनो बाद उसका पत्र मिला था। पत्र मानो मेरे हाथ में पाकर गिडगिडा पाया था। लेकिन मन का क्रोध उससे और उभरता ही गया। मैंने मन मे कहा--'मर कम्बख्त । मुझे क्या है ? लेकिन सच कहता है कि कितना ही मैने मन को समझाया कि मुझे क्या, लेकिन मुझे ही चैन नहीं था। क्या हुआ होगा ? जन-प्रदवाद ने क्या हाल किया होगा? क्या उसके मन पर बीत रही होगी ? क्या आस-पास का व्यवहार होगा? सब प्रश्न मन मे उठते थे और सबके उत्तर में एक घोर अन्धेरा ही हाथ आने को रह जाता था और में और भी ग्रोध से भर पाता था। सोचता था-चलू, एक बार उस शहर मे जाकर देख ही आऊ । लेकिन जाने कौन मुझे रोक देता था और मालूम होता था कि ऐसा होना असम्भव है। यही महीने भर पहले की बात है। तब से उसके नाम पर सिवा कष्ट के मैने कुछ नही भोगा । वैचैनी के हाथ कही कुछ विन्दु भी प्राता तो उसको मसल कर अपने को कुछ हल्का भी किया जा सकता था। लेफिन खत का जवाब मैने नही दिया । न फिर कोई खैर-सवर प्राई। इग सुन्न सन्नाटे पर कोई क्या कर सपाता था? लानत-मलामत, फटकार-दुतकार किस पर डाल सकता था? कि आज फोन मिला। पूछा, क्या पाच बजे मै पा सकता हूँ? मावाज फाप रही थी, गला भरा हुआ था। लेकिन उत्तके इस 'क्या' पर मे झुंझना पाया । "क्या में आ सकता हूँ?" क्यो, वह क्मवस्त जानती नहीं कि दुनिया के नय काम छोडकर मुझे जाना होगा, 'क्या' का नवाल नहीं है । फिर भी यह उमका 'क्या' मुझे अन्दर तक चोर गया । मानो उसने अपना विश्वास नो दिया हो, मेरा विश्वास खो दिया हो । दुनिया में पाही उसके लिए किसी विश्वास का ठिकाना न रह गया हो । मैने कहा था "कोन सुपी ? तू भी है ?"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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