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________________ झसेला जगह पाने में समय लग रहा था और में बार-बार घडी देखता और जुझलाता था । पाच कहा गया था और अब उसने पाच मिनट ऊपर हो गया था । एक-दो मिनट और निकल गए तो अनुमान ने एक द्वार मैने ठेलकर खोला । वहा साइन बोर्ड नहीं था और मैं शका में था। दरवाजा खोलने पर अन्दर अन्वेरा दिसाई दिया। थोड़ी देर मे -मालूम हुया कि एक मद्धम वत्ती है और बाहर के प्रकाश से पाने के कारण ही अन्येरा इतना घुप्प दीसा था। मैंने पाखें मली और कमरे को भेद कर देखने लगा। कमरा लम्बा था और शुरू मे कुछ-दिसाई न दिया। फिर दूर परले किनारे से एक नूरत इसी तरफ बढती मालूम हुई । क्या वही सुशी है ? पहचाना नहीं जाता था और चाल उस जैसी न थी। तभी मालूम हुआ कि पीछे एक और व्यक्ति भी है जो कद मे ऊचा, पूरा और विश्वस्त मालूम होता है । कौन हो सकता है ? यह सोच न पाया था कि सुपमा की आकृति मुझे पहचान मे या गई । मैं तेजी से आगे बढा चौर दूसरी ओर मे मानो सुपमा झपटती हुई मुझमे आ गिरी। बोली-"राजेश !" में सन्न रह गया। सुपमा जो थी उसने अव याधी भी नहीं थी। सूरत पर गे सब उजड़ गया था। बाल विसरे थे और सव विखरा था। पायें फोनी, खोई, बदहवास थी। यह सब अभी ध्यान में न ला पाया था कि सुपमा अलग हो गई। साथ के व्यक्ति पान आ चुके थे। सुपमा ने परिचय कराया और उन्होंने महा, "मजा, अब में जा सकता है?" सुपमा ने हाथ जोड दिए । व्यक्ति ने मेरी ओर हाथ बटाया और
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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