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________________ विच्छेद पश्चिम का समाजवाद कुछ उनकी वहुत मदद नही कर पा रहा है । वह तो उद्योग-व्यवसाय का युग है और हमारे जैसे पिछडे देश उनके लिए मडी बनने को तैयार है तो ही वह समाज टिका हुआ है, नही तो आर्थिक एक भी धक्का वह सह नही सकता । क्योकि उन्होने व्यक्ति और समाज के प्रश्न के बीच मे परिवार को निर्वल बना दिया है । हरेक अगर अपने को माने और आजाद माने तो उस तरह परिवार की एकता कैसे रह पाएगी? मिलजुल के चलते हैं तो इसमे कुछ झुकना भी पडता है । इस झुकने मे तो वल्कि कृतार्थता है । क्योकि प्रकृति मे एक इसान ही है कि उसको गर्दन सीधी मिली है । अब यह उसकी सस्कृति है कि स्वेच्छा से वह उसे झुकाए ।" ___ सविता सुन रही थी और उपदेश उसे अच्छा नहीं लग रहा था। बल्कि इस परिस्थिति मे दुत्कार उसे पसन्द आ सकती थी, और समझ भी पा सकती थी। वह अब भी कुछ नही बोली। बुजुर्ग बोलते गये, "तुम्हारे स्वसुर की तुम्हे याद दिलाऊ । कितने वडे आदमी थे। सव उन्हे अादर्श के तौर पर मानते है । मैं तो जोह, उन्ही का बनाया है। सच बताओ, बेटी, क्या बात है ?" सविता अव भी कुछ नहीं बोली तो उन्होने हाथ बढाकर उसके सिर पर रखा और कहा, "बोलो, बेटी, बोलो।" । सविता का जी अब कुछ पसीजा । वोली, "कुछ नही।"] "ऐसा मुझे न कहो बेटी । कुललक्ष्मी के यही लक्षण हैं। घर की बात वह किसी तरह वाहर नहीं जाने देती है। लेकिन मुझे भी गैर मानकर बात करोगी तो कैसे होगा। कुनबे मे बड़े छोटे का लिहाज रखना हो सकता है । मेरे लिए वह वात नहीं है। केशव को मैं डाटफटकार भी सकता हू । जानता हूं, ऐसे में अक्सर वीतती स्त्री पर है, दोप पुरुष का होता है । सौभाग्य की बात है कि अब तक केशव मेरा मान कुछ रखता है। वैसे बहुत हैकड है यह सच है, और मैं अनुमान फर सकता हूं कि क्या कुछ तुम्हे सहना पडता होगा। इसलिये तुम
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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