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________________ मुक्ति ? १७५ का भी वास्ता एक दूसरे के बीच न हो। दो-एक क्षण कोई कुछ नही बोला । शाडिल्य खडे थे, मनोरमा बैठी थी। दोनो ने एक-दूसरे को देखा और देसकर अनदेखे हो गए। कुछ करने के लिए शाडिल्य के हाथो ने मेज पर से ट्रे को और गिलासो को उठाया और बराबर में कोनिस पर रख दिया । जैसे कुछ करें तभी अपना होना सहा जा सकता है । लौटकर उन्होने मेजपोश के कोने को ठीक किया । जरा इधर-उधर अपेक्षा की निगाह से देखा और फिर सोफा के पीछे अलमारी के सामने जाकर वहा से किताब निकाली और वैठकर पढने लगे। __ मनोरमा अपनी जगह पर ज्यो की-त्यो बैठी रह गई। गिलाम उठाने, मेजपोश ठीक करने और फिर जाकर अलमारी मे से पिताव खींचते और बैठकर पढने लग जाने की पति की सारी विधि को मनोरमा बिना देखे देखती रह गई । जानती थी, कुछ नहीं है, केवल किया है। उसमे प्रात्मता नहीं है, केवल व्यर्थता है । व्यस्तता बस बचाव है । किताब कोरी क्रियमाणता प्रतीक है कि जिसकी प्रोट वह मुझसे बचे और अपने को झेले । मनोरमा का मन इस अनुभूति पर भीतर-भीतर ऐंठ-सा आया। लेकिन वह अपनी जगह से हिली न डुली । मानो दुर्लध्य चावधान बीच मे हो और दोनो ओर निरुपायता हो। शारिल्य दूर उस कोने मे पढते रहे। मनोरमा अलग इस तरफ बैठी रही। पाटित्य फी मायु तिरसठ वर्ष है। मनोरमा अठावन है। चालीस वर्ष के लगभग दोनो साथ रहे हैं। पर शाडिल्य पढ पर पढ रहे हैं, मनोरमा पेटी की बैठी है। समय सरक रहा है-और मालूम होता है, बीच में निपट 'अन्तराल है, सम्बद्धता के सूम वहा से लुप्त हो गए है । शुद्ध प्राकारा रह गया है, अपवा काल । अन्यथा दो निजतायो पौर महतामो मे नितातता है और बीच में माम शून्य । जंग सागो ने अलग हुए दो द्वीप हो कि मध्य में निताना घोर अपरिचय पौर अनभिजता ही समय हो। मिताव सामने है मौर अनुभव होता है कि दुनिया है पीर नहीं हैं।
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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