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________________ विक्षेप १६५ से बस यह हम परमात्मा ही बच सकता है, जो सब कुछ है, और जिसे कुछ नही छूता है। हा, हम, हम, हम । हाल मे दोनो तरफ कुसिया लगी हुई थी और वीच मे से मार्ग छूटा था जो मच तक जाता था । मानो सब कुछ का निरीक्षण करने के वाद, उसके मन मे अपना कर्त्तव्य स्पष्ट हो चुका था। वह बिन्दु स्पष्ट हो चुका था, कि जहा पहुचना और जमना है । जहा कुछ देर अपने को समाहित करने के बाद परम दया मे इन विखरे और भूले हुओ को अपना सन्देश देना है । मुक्तिदायी और परम हितकारी सन्देश | सन्देश कि ए पढ़े-लिखे लोगो, मूर्ख बने यहा क्यो बैठे हो ? लो, यह मै प्राता है। सुनो, और वम यहा से भाग जाओ। बीच के मार्ग मे से मानो ध्यानस्थ और अवध्यानस्थ वह वढा और बढता हुआ चला गया। एकान, एकनिष्ठ । पता तव चला जबकि ठीक मच के समक्ष वह खडा हुआ और उसने क्रमश सामने देखा, दायें देखा, वायें देखा । अध्यक्ष के सामने मेज थी और उस पर गुलदस्ता था और घडी थी और पहनाए गए पुष्प हारो का ढेर सा था । उस सबके बीच मे आ जाने से अध्यक्ष को वह मूर्ति दिसाई न दी । पर व्यवस्थापको का ध्यान गया और श्रोताओ ने भी इस निस्मगनिग्रंथ पुरुप को देसा । किन्तु अव तक वह स्थिति का पारायण पूर्ण कर चुका था और प्रासन मार के वही बैठ भी गया था । प्रासन पद्मासन नही था, और थोडी देर मे ही उसे मालूम हो गया कि वह तो पद्मासन ही चाहिये । तनिक उठकर झाडे गए झाडन वो उसने अपने नीचे लिया और दिव्य-भाव के साथ वह पद्मासन लगाकर बैठ गया । तव उस गत्ते के भोपू को उसने अपने समक्ष मानस्तभ की भाति टिकाया और उस पर विश्व कोप स्प यह जत्री प्रतिस्थापित की। फिर अभिषेकपूर्वक वहा रारकडे को कालम को प्रस्थापित किया। मानो ज्ञान के सुमेरु को ही उसने इस प्रकार रचना कर ली । फिर दृष्टि को नामाग्र करके मन ही मन उसने कुछ उच्चारण करना प्रारम्भ किया। प्रोठ अवश्य
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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