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________________ विक्षेप १६३ रुक गई हैं और प्राकाश खतम हो गया है । महाशय को यह सचमुच ही बहुत विलक्षण मालूम हुआ । दिशा अनन्त हैं, और आकाश सर्वव्यापी है। लेकिन ठोस ईट के जोर से अनत खतम हो जाएगा, और सब कही होने वाला आकाश बाहर ही रोक कर खडा कर दिया जायेगा । और वहा फिर क्या होगा ? विद्या होगी और उसका प्रालय होगा । विश्वभर की विद्या को लाया जाएगा और दिया जाएगा। विश्श विद्यालय । कारण कि विद्या अनत मे उड न जाए। और घिर के वन्द व सुरक्षित रहेगा। उसने सव तरफ देखा। वह अब पहली सीढियो से चढकर ऊपर या गया था। पाखो से देखा, फिर पास जाकर दीवार पर हाथ लगाकर देखा । ठीक है, और मजबूत है । हवा आर-पार नही जा सकती है। उसे अनुमान न हुआ, दीवार कितनी घनी होगी । उगली मोडकर उसके कोने में उसने दीवार को ठकठकाया । ठक-ठक को फिर कान पास लाकर मुना । उसने अपने को पूरा विश्वास दिला लिया कि दीवार पोली नही है, बल्कि सानी मोटी है । उमने ऊपर छत की ओर देखा। जैसे उसने कोशिश की कि हम छत को भेद कर उसकी निगाह पार जा सके । वह देर तक इम तन्ह देखता रहा । छत ज्यो की त्यो रही और उस निगाह को अपने मे पीती समाती चली गई। मालूम हुआ कि वहा कुछ भी जुम्बिश नहीं हुई और छन ऐने टिकी है जैसे प्रतिम और परमसत्य वही हो । उसको एक क्षण के लिए अपने बारे मे सशय हुआ। यह कि क्या वह परमात्मा नहीं है ? छत अपनी जगह से उड नहीं रही थी। मानो उनके दर्शन को रोकने को अडी हो । पर उसका दर्शन परम है, अवाध है । वाघा वही हो नहीं सकता। इसी से वह परमात्मा है । लेकिन निगाह ने छत उडी नहीं, नहीं उडी, तब वह हना। उसकी मुस्कराहट परम उतीणं थी । जैसे मानो यह कृपा कर रहा हो। फिर उसने ऊपर फो मुह किया पोर छत की तरफ फूक छोड़ी। सचमुच फूक में छत वह उड़ गई। एफदम उड गई और दिक-काला-आकाश सव
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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