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________________ १४४ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग अपना पापा ही जैसे उनसे खो गया। क्या इन्ही के सौन्दर्य से अपने को बचाने के लिए वह सस्त हुए थे । क्या इन्ही के वेतन का पनास रुपया पन कर डाला था । वह किसी तरह अपने को समझा नहीं सके । उनकी कल्पना वेकाम हो गई। सम्पन्नता की किस ऊचाई पर उन्होंने इन महिला को देखा था-वह भूल नहीं पाते थे । बल्कि देखा कहा था। नही तो भाकी तक नहीं पाई थी 1 देखने की स्पृहा ही मन में जुटाकर रख पाई थी। वही उनके अधीन मामूली-सी जगह की नौकरी पाने की प्रायिनी बनकर आने को विवश हुई। यह तहमा उन्हे अकल्पनीय और असहनीय हुआ। मानो वह अपने को धिक्कार रहे हो। इस विभाव मे माये मे वल डालकर वह वहा से एकदम लौट पडे । एक शब्द भी प्रमीला को नहीं कहा । सिर्फ ताकीद के स्वर मे गेगर को कहा, 'इधर प्रायो।" ___ शेखर जाते हुए भाई साहब के पीछे चल दिया और प्रमीला अपराध की मूर्ति बनी-सी वही अकेले खडी रह गई । उमको भी एक क्षण कुछ नहीं मूझा । फिर एकाएक नाना दुसम्भावनाए उसके माथे मे कोलाहल मचाती हुई भागने-दौडने लगी । उसके मन मे निश्चय-ना वनकर जाग उठा कि अब उसकी नौकरी समाप्त हो गई है । उसके साथ जैन सारा भविष्य भी उसके लिए समाप्त हुआ जाता लगा। माथुर के माये पर पडे वक्र को देखकर उसके चित्त में सराय नहीं रह गया था-या बडा मराय पैदा हो गया था ! शेखर लौटा तो उसकी भाभी वही की वही राडी यी । उनका चेहरा देखकर वह मन्न रह गया । उसका मन उठला आ रहा था। लेकिन अब ऐना बैठा कि उसको कुछ नहीं सूझा। उगने वाहें अपनी भाभी के कन्धों पर की और मानो उन्हें पामते हुए वह उन्हें ले चला। वहा, "भाभी, अनी जाना नहीं होगा। भाई साहब ने कहा है कि ठहरना होगा।" प्रमीला ने मेयर पो देखा । जैन वह गद गमन नहीं पा रही थी।
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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