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________________ १३४ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग श्राग्रही मालूम होता था। ____ कुछ नही है, एक दम कुछ नहीं है। लेकिन हा, शायद वाह है और उस बाह का घेरा है। उस घेरे मे घिरने के लिए लीलाधर अनायास अपने सोच से उवरे और चारो तरफ के भीषण नकार को देखते-देखते मुस्कराते स्वीकार ने लील लिया। पर रात वीतती है, सवेरा आता है और उसके साथ मानो कर्तव्य जागने लग जाता है । लीलाधर ने फोन किया डी० एस० एम० को। इस समय वह तने अफसर न थे और लीलाधर के कहने पर कि क्या हम लोग पाकर शव देख सकते हैं ? उन्होने अभ्यर्थना के साथ कहा, "अवश्य आइए । सीधे मेरे दफ्तर मे पाइएगा तो कोई असुविधा न होगी। मैं साढे आठ बजे पहुच जाता है।" लीलाधर ने कहा, "चलोगी ?" "अव, सवेरे ही सवेरे इतने काम की भीड़ मे ?" "देख लो, लेकिन चलना चाहिए।" "तो चलो, दया को भी बुला लू" । "दया को-चुला लो।" दया सहेली है। तत्पर और सेवा भावी है । और हिम्मत के कामो मे आगे रहा करती है। डी० एस० एम० ने पहुचते ही लीलाधर जी का स्वागत किया और तत्काल फोन से हिदायत दी कि एक मित्र पा रहे हैं, उन्हें कोई कप्ट न हो । और शव नम्बर 'अ' उन्हे दिखा दिया जाय । लीलाधर ने पूछा कि शव का क्या किया जायेगा? "कोई अगर नही मागता है, तो अडतालिस घटे के बाद उसको किनारे कर दिया जाता है । आप शरीर ले जा सकते है, चाहें तो।" "शरीर-~-क्या आपके किसी उपयोग में नहीं आ सकता ?" "क्यो नही । यहा तीन मेडिकल कालेज हैं। सबको जरूरत रहा करती हैं ।"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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