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________________ जना-मरना निमत्रण दिया । सीनाघर गढ़ा ही रहा। जीवन भी केमा विवश है ! कैसा निर्मम थोर नितांत | गीत पग-पग पर उसके नामने क्यो न आती है, वह ant प्रवृति जैसे एक क्षण के लिए भी रुक नहीं सकता । उल्लासविमान को प्रवृत्ति करने परने को, बटने उठने की प्रवृत्ति । लीलाधर सीधे टेलीफोन की तरफ बढ़े और डाईरेक्टरी में देखकर एम० एम० के घर का नम्बर मिलाया। मालूम हुआ, वह घर पर हैं नहीं । गय आयेंगे | मानूम नहीं । एक क्षण गोवा और टी० एन० दिया। उनके स्वर में उतार मोर मीनार में यहां विनार भी मिला है। में जानना चाहता हूं किबी हुई तो फोन पर वर मुरुको गयो नहीं दी गई ? "नही है । भाप चाहते क्या है दे" "क्त यहा होगी और उसका क्या किया जायेगा ?" "सभी शायद वा मे हो । धेरे घर पहुंचा दी जायेगी ।" का क्या होगा ?" ० एम० ए० पार रहा, "ले जाये, और जो चाहे 1 मेरे पाप नहीं है ।सान मे बात पीजिएगा ।" "परी हो या मानला | मरीज कोई मेरा था मे को बोरिंग के तौर पररता है । धाप का यह दोष भी पर्व है। ST CLTÀ DA TZ DOT 4 I पीयू, षकृ *1 मीजजवर ने हाई वश क गने मानी कर लिया एम० के पर पा नम्बर डायल भनाहट थी । दिया। गुमसुम वह पर गुण किसी पर नहीं था दिदी के पर १३१ कम है। पीठ पीछे भी उ
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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