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________________ ११४ जनेन्द्र की कहानियां दसया भाग इधर-उधर जाएगी-तो तब क्या होगा? और मुझसे रहा नहीं जाता है और मैं वहा पहुच जाती है। क्योकि यह अकेला रहता है और कमरा बहुत सूना है और उसका कोई नही है । चौके मे लगकर कुछ उसने लिए तैयार कर देती है। लेकिन ज्यादातर वापत जल्दी मा जाती है । क्योकि घर में फिर आकर बच्चो के लिए अपने हाथ से कुछ बनानावनूना होता है । कभी अवश्य ऐसा होता है कि उसकी प्राख में जाने क्या देखती हू कि जा नहीं पाती है । वह वहा मचलता है और वडा ढीठ है और मुझे रुक जाना पड़ता है। क्या यह सव में ठीक समझती हू या पसन्द करती है ? या मुझे अच्छा लगता है ? लेकिन मैं सब भूल जाती हू और सचमुच फिर समय भी भूल लाता है और कभी तो रात काफी देर से पहुच पाती हू । घर तो है ही, और वह सबसे बडा कर्तव्य है। उस कर्तव्य मे त्रुटि में भरसफ नहीं करती। लेकिन उसको निबाहते हुए अगर मुख की वूद एक राह में मिल जाती हो। तो क्या सूसे कंठ मे उसका अपमान करती हुई मैं निकलती चली जाऊ और उसी में कृतार्थता मानू ? अगर ऐसा नहीं करती है तो क्या मत प्राप भी मुझे दोष देंगे ? गिरस्ती एक जूवा है और पन्धे पर लिए-लिए पातों को सब ओर से बचाकर मैं अब तक उसे ढोए चली गई है। आप जानते हैं कि एकाएक मेरी भाग पुली तो कमे सुली ? बताइए कि मैं फिर अपने को रोक सकती थी ? कर्तव्य का चक्कर अगर था तो उनके लिए भी न था, सिर्फ मेरे ही लिए था? या तो दोनो के लिए था } नहीं था तो मेरे लिए भी नहीं है। आप मच काहिए ! पर्शन नहीं, विचार नही, फैसला दीजिए । दो टूक जो हो वह शलिए ! प्यार और व्याह की गोल बान न कीजिए। तात्विक विवाद में ने कुछ नहीं मिलता । मैं प्यार को नहीं जानना चाहनी । विवाह को भी नहीं जानना चाहती । ये शब्द हैं और मेरे पल्ले में स्वय हूं। उस निपता को लेकर मुझे द्विविधा में न हानिए । मेरे मन मे पाट-फाय न पैदा योजिए । देखिए, भाप ही कही ये कि
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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