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________________ छ पत्र, दो गह को पकड़ कर चवा लिया ! तुम दोनो विगडे और फिर सिलसिला पढ़े। सच मानो तो ये सब देवकर मैं धन्य अनुभव कर रहा था। लेकिन फिर भी जाने ययों, धनी और गहरी होती हुई सांग के साथ मुझ पर एस. भारीपन बैठता चला गया और मेरा मन जाने कैसे पास से भर गया। गाची ममाधि से लौटने में मुझे रात हो गई। मैं याना नहीं सा सका और पत्नी ने पूछा, तो कुछ बता भी नहीं सका । वह नाराज हुई पोर विगी और मैने झिडक दिया । उनको प्रादत तो नही है कि मुझे सहमा छोर दे। लेकिन इस बार उन्होंने कुछ जिद्द नहीं की और मुझे अकेला छोड दिया । प्रच्छा ही हमा, पयोकि मैं किसी से बात नहीं फर समता या । मंग मन इस पर भारी था कि जिस प्रसन्नता को अपने गोली में भरकर में तुम्हारे पास में लाया था । वो पाने किरा विध गहरे रिपाद में बदल गई भी पौर मुझे घाह नही मिल रही थी। जैसे मैं टूया जा रहा था, और यह तल न पाता था, जहां मार लू फि बस पन्त , पीटा मागे नही जा सकती। गोया सो मैं गवस्य, लेकिन भार पल्दी तुन गई । भर चार बना है।म विसर पर हूं, कमरा अमेला है गौर तुम्हें यह पत्र लिख रहा है। जानता नहीं में गया चाहना है । पायद कुछ भी नहीं चाहता हूँ ! उपदेश तो दे ही नहीं मरता । उस में कहा है, काफी बाइ, सेफिन भर समा मह नहीं मार पाया हु कि जवानों की जवानी पोई दोपया पर किसी तरह हलो अनलगन्दी है । अनुभव को और क्य को में बहुत महत्व न दे पाहू और मुझे लगता है कि मीना ने माता पा प्राणों का वेग जो नकोरी पो नही देग पाता, नही मान पाता, तोढ़तामामारिबानी सासरतातामा पत्ताही पन्ना , पाल्पपान नहीं है । किन दिमना, मेरे मन में विदा होती है पर इस पनामा पाता। पाने के बाद गुम पारितोदे पाई होगी। पन्दे दो
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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