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________________ • मौत की कहानी उसने कहा पहले आप यह समझ लीजिए कि में हमेशा ऐसा न था । जब पढ़ता था, तब अच्छा शकील था, जवान था। जाने उम्र के साथ शकल क्यों बुड्ढी होती है । शकल का क्या जाता है, जो वह उसी तरह भरी गुलाबी नहीं रहती। अब की शकल से आप बिल्कुल अन्दाज़ा नहीं लगा सकते कि मैं कामदेव था, और मन आसमान में रहता था। तब सोचता था, व्याह नहीं कराऊँगा। क्या व्याह-ब्याह ! घर के अन्दर ही नोन-तेललकड़ी के चक्कर में पड़कर घूमते रहो, और एक दिन आए कि थकथकाकर वहीं ढेर हो जाओ । तब कोई कहता कि तू अड़तीस बरस की उमर में चार बच्चों का बाप होकर फिर दूसरे ब्याह के लिए मरता फिरेगा, तो मैं उसे थप्पड़ लगाकर गाली देने का मजा चखा देता । पर आज मैं अचरज नहीं करता । यहाँ हर बात पर अचरज करते फिरोगे, तो उसी में मर जाओगे । ज़र्रा-ज़र्रा यहाँ का अचरज से भरा पड़ा है। यहाँ तो अपने काम-से-काम रखना चाहिए । तो मैं आपको वह बात सुनाऊँ। बहुत दिनों की बात हो गई है । मैं सेकण्ड-ईयर में था, या थर्ड-ईयर में, अच्छी तरह याद नहीं। उन दिनों में बड़ी सुधार की बातें सोचा करता था। गांवों में विद्या की कितनी हीनता है, और हम लोग जो पढ़े-लिखे हैं, इस ओर अपना ऋण बिलकुल नहीं चुकाते हैं-यह सोचकर मुझ पर जिस भारी काम का उत्तरदायित्व है, उसका बोझ में अपने कन्धों पर अनुभव किया करता था । सोचता था-जरा पढ़ लू, कुछ हो जाय, फिर गाँवों की हालत सुधारने में लग जाऊँगा । जीवन की सफलता है उत्सर्ग में, बने-ठने फिरने में कुछ नहीं है। उन दिनों यह बात मानो मैंने अपनी रग-रग में समा ली थी। दधीचि और शिवि के कार्य और सनातन प्रादर्श को मानो खींचकर अपने भीतर रख लिया था और उसे ऐसा सजग रखता था कि कभी आँख से वह अोझल न होने पाए। उसके प्रकाश और उष्णता की ओर से कभी चित्त फेरकर रह ही न सकू, उस आदर्श को ऐसा प्रज्ज्वलित करके मैंने अपने भीतर समा
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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