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________________ ७० जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवां भाग] देखने की सूझी है। यही था, तो अकेले मरघट में जाकर बैठते । वहाँ देख पाने की कुछ आशा भी हो सकती थी। वास्तव में मौत अपना रंग बदलती रहती है। किसी को कैसी दीखती है, किसी को कैसी। अब कुछ, तो फिर कुछ । या कहो कि वह वैसी ही रहती है, अलग-अलग तरह की दीखती है । मैंने जब देखा था, तब तो बिलकुल डरावनी नहीं मालूम हुई थी, अब जाने कैसी लगेगी।" हम सब जानने को बड़े कुतूहल-ग्रस्त हुए कि इसने कैसे उसे देखा, और इसे क्यों डरावनी नहीं लगी। ____ डाक्टर विद्यास्वरूप ने हँसकर कहा, "मौत जिसे देखती है, उसे अपने साथ ले जाती है। इसलिए कि कोई उसे देखकर यहाँ फिर उसका | भेद न खोल दे, जिससे उसका सारा डर-वर जाता रहे । तुम तो यहाँ-केयहाँ मौजूद हो !" प्रमोद ने कहा, "तो आप चाहते हैं, मैं यहाँ न होता, कहीं और चला गया होता । आप क्या चाहते हैं कि मैं स्वर्ग-लोक में चढ़ गया होता, या नरक-लोक में जा पड़ा होता। या बताइए आप चौरासी-लाख जोनियों में से किस जोनी में मुझे भेजना पसन्द करते ?...मैं तो अपने को बिलकुल छोड़ बैठा था कि मुझे अब कोई ले जाय, अब कोई ले जाय । पर कोई लेने ही न पाया। और पांच-मिनट इस मौत के चक्कर में पड़े रहने के बाद मैं चंगा हो गया। शक है कि पांच-मिनट भी लगे या न लगे। शायद तीन ही मिनट में सब काम हो गया हो । उन तीन मिनटों के बाद मैं जैसा भला-चंगा था, वैसा ही हो गया। पान मैं तभी से नहीं खाता हूँ। मौत से डरने के बजाय मैं पान से डर लेना अपने लिए काफी समझता हूँ।" इस तरह बहुत देर तक खूब झिकाकर खूब उकसाकर, जो कहानी उस कम्बख्त ने हमें सुनाई, वही मैं आज आपको सुनाता हूँ। उसके लिए आप मुझे जिम्मेदार न मानें।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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