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________________ • कुछ उलझन ५६ लखनऊ, १० अक्तूबर प्रिय भैया, ___सादर वन्दे । आपके पत्र के लिए कृतज्ञ हूँ। आखिर इतने वर्षों बाद आपने पत्र लिखा तो। मेरा ऐसा अनुमान है कि बम्बई में तबीयत लगने का गुण और जगह से कुछ ज्यादा ही है । आपके बारे में अवश्य तबीयत लगने न लगने का प्रश्न इतना नहीं है, पर बात यह है कि आप एम० ए० में फर्स्ट क्या इसलिए आए थे कि दुनिया से आप विमुख वन जायँ और दुनिया को अपने से लाभ न पहुँचने दें? मुझे नहीं मालूम पहाड़ की तराई के वृक्ष-पौधे प्राप से कितना लाभ लेते होंगे । यो बम्बई पाप से लाभान्वित होने को चिंतातुर है, ऐसा तो नहीं है। लेकिन वहाँ चूंकि मानव-सम्पर्क अनिवार्य है, इसलिए समाज पर व्यक्तित्व की कुछ छाप पड़ना भी अनिवार्य है। समाज के प्रति व्यक्ति में विमुखता ही तो नहीं चाहिए न । इसी से मैंने चाहा कि हिन्दुस्तान में जहाँ सर्वाधिक कर्म-संकुलता है और जहाँ परस्पर बेहद रगड़ है, उस बम्बई में आप अपने को पायें । जंगल के लिए तो हीन-सामर्थ्य लोग अधिक उपयुक्त हैं । जहाँ होड़ इतनी तीन है कि एक के व्यक्तित्व की सीमा-रेखाएँ दूसरे की मर्यादाओं के साथ संघर्ष में आये बिना रह नहीं सकतीं, जहाँ व्यक्तित्व परस्पर रगड़ में प्राकर एक-दूसरे को छीलने में और एक-दूसरे से छीनने में लगे हैं, ऐसी जगह ही एक सबल, स्वस्थ पुरुष का परीक्षण होगा। वहीं का निमन्त्रण आपको कैसे अस्वीकार करने दिया जाय ? रुपए की बात कृपया न कीजिए । मैं भी उससे तङ्ग हूँ । उसके कमाने से तङ्ग हूँ। उसके खर्च करने से तङ्ग हूँ। कमाने के लिए खर्ची, खर्च करने के लिए कमायो । कुछ निरर्थक-सा चक्कर है । पर जीवन है ही एक चक्कर । ग्रहण करो, विसर्जन करो। पात्रो, खोयो।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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