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________________ कुछ उलझन उसके योग्य नहीं हैं। वह भी शायद मेरे योग्य नहीं है। इसलिए तो तुम देखते हो, कि अगर मैं उसकी परवाह नहीं करता तो उसी को मेरी कब परवाह है ! हाँ कल वर्मा मिला था। याद आया ? वही अपना वर्मा ! यहीं होटल के हाल में एक मेज पर अकेला बैठा तीसरे पहर के सन्नाटे में शरबत पी रहा था। मुझे देखकर वह पाक से उठा नहीं। हम लोग जाना करते थे कि वह दुनियादार है । पर उस वक्त उस चेहरे पर दुनियादारी अनुपस्थित थी। ऐसा लगता था जैसे कोई संकल्प, कोई स्वप्न उस पर सवार हो । मैंने कहा, "हलो वर्मा !" उसने तनिक स्वीकृति में सिर झुकाया और आवाज दी, "बॉय । ___बॉय के आ जाने पर उसने मेरी तरफ़ देखकर कहा, "क्या ? शर्बत या...?" मैंने कहा, "नहीं, कुछ नहीं।" ___ उसने सिर घुमाकर कह दिया, "बॉय, एक गिलास शर्बत, केवड़ा। हाँ ब्लाडी, केवड़ा।" इतना कहकर वह फिर अपने शर्वत के गिलास से लग गया। श्याम, वह उस वक्त हमारा पुराना वर्मा न था । भला कभी वह इतना बन्द, इतना मितवाक, इतना गुमसुम हो सकता था ? क्या वह उन पुराने दिनों में सदा ही खिलकर बिखर पड़ने को उद्यत न रहा करता था ? लेकिन मेज़ पर बैठा हुआ वह वर्मा तो अपने में ही ऐसा समाया हुआ था मानो भीतर कोई बात उसके प्राणों को डसकर बैठ गई है। ____ मेरे सामने शर्बत आ गया, लेकिन मैंने पिया नहीं। वर्मा ने भी कुछ नहीं कहा। वह कई-कई सेकेण्ड बाद शर्बत का जरा-सा घूट लेता था। इस तरह कई मिनट हो गये । अन्त में जब उसके गिलास में से आखिरी बूद चूस ली गई और बर्फ़ का एक छोटा-सा टुकड़ा ही बस वहाँ बाकी
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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