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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [ सातवाँ भाग ] राजीव की आँखों ने देखा तो तीन-चार, एक साथ दोनों हाथों की कई काँच की चूड़ियाँ चट चट टूट गई हैं, और उनके टुकड़ों ने चुभकर भाभी की कलाइयों में जगह-जगह लाल-लाल लोहू के सोतों को छेद दिया है । अब भाभी की एक बाँह भाई साहब के हाथ में है, दूसरी कालीन पर टिकी है । उस बाँह की कलाई पर फस्द के पास के एक बिन्दु पर राजीव की दृष्टि ' जकड़ गई है । यह रक्तबिन्दु वहाँ उत्साह के साथ मानो क्षण-क्षण फूलता आ रहा है । ४६ --- "अरी बढ़ती नहीं है ? कालीन पर वह रंग नहीं डालेगा, और वह रंग लिये खड़ा है ।" ग्रनन्तर लात और लात और... राजीव ने सहसा जोर से लोटा फेंक दिया। आगे बढ़कर कहा, "भाई साहब ! क्या करते हैं ?" कब्र के-से ठंडे स्वर में भाई साहब ने कहा, " तू रंग डालेगा न । ले डाल । " राजीव ने प्रभाव से पुकारा, "भाई - साहव ! " 'अरे जा, तू जा ।' राजीव चुप । भाई साहब ने एक साथ चीख कर कहा, "जा, जा । नहीं तो मैं जानवर हो सकता हूँ ।" भाई साहब ने यह कहा और वह मानो ठिठके रह गए। उसके बाद फिर एक साथ भाभी का हाथ छोड़, लौट कर तेजी से कमरे में चले गए और अपने ऊपर दर्वाजा बन्द कर लिया । राजीव ने देखा, भाभी फ़र्श को टकटकी बाँध देख रही हैं । आँखों से न आँसू निकला है, न मुँह से निवेदन । हाँ, कलाइयों में से जगहजगह से फटकर लहू ही खुलकर निकला है । हाथ वैसे ही कालीन पर टिका है, सिर उघड़ गया है, और भाभी बैठी हैं कि बैठी ही हैं । अरे, बैठी ही हैं ।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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