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________________ राजीव और भाभी और राजीव ने देखा, भाभी का मुह फ़क्, पीला, पके पत्ते-सा हो गया है। पर अब भी क्या वहाँ अबलता की चुनौती लिखी ही नहीं है ? क्या वह तनिक भी मिटी है ? उस भयभीत मुख पर तो अब मानो पौरुष के हाथों दब कर और भी दुर्दमनीय, परास्त होकर और भी अविजेय, स्त्री होने के कारण और भी हठीली होने का संकल्प अक्षरों की भाँति स्पष्ट होकर लिख पाया है । अोठों के कोनों के चारों और वही तो है, अरे वही है ! राजीव ने कहा, “मेरा लोटा तो अभी भरा-का-भरा ही है।" "तू रंग डालेगा ?" "डालना तो चाहता हूँ।" "अच्छा ।" कहने के साथ भाई-साहब उठे । स्थिर डग के साथ चलते हुए प्राए । तनिक-तनिक घूघट की कोर माथे के आगे है, और भामी खड़ी हैं । भाई-साहब ने आकर उनके दोनों हाथ पकड़े। कहा, "चल री चल, रंग डलवा ।" ___ भाभी वहीं-की-वहीं बैठ गई, उनकी बाँहें भाई-साहब के हाथों में थमी मुरड़ती चली गई। दोनों बांहों से ज़ोर से भाभी को खचेड़ते हुए भाई-साहब ने कहा, "रंग डलवा । वह खड़ा है।" भाभी वहीं की हो रही; सरकी भी नहीं। ज़ोर से उनकी कमर में लात मारकर भाई-साहब ने कहा, "अब डलवाती क्यों नहीं रंग ?" राजीव लोटा हाथ में लिए सुन्न-का-सुन्न रह गया। भाभी चुप । न आँख में उनके आँसू निकले,न मुह से कुछ निवेदन । ज़ोर से हाथों को झटक कर और दो-तीन लातें एक साथ जमा कर उन्हें खचेड़ते हुए ही भाई-साहब ने कहा, "अरी देख तो, कैसा रंग है ? चल डलवा, रंडी !"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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