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________________ चालीस रुपये वागीश को बुरा मालूम हुआ, पर मित्र को भला मालूम हुआ । औरत-जात का उन्हें भरोसा नहीं, फिर जिसने खुली हवा देखी हो ! उस दिन सबेरे ही उठकर स्त्री ने दस सेर आटा पीसा था, झाड़ दी थी और महरी न आने की वजह से कहने-पर चौका-बासन भी उसी ने किया था। इसकी मजदूरी में वागीश ने आठ पाने दे, भरपाई की थी। आज स्त्री ने अपने पुराने कपड़ों की बाबत पूछा था। वह इन कपड़ों को यहीं उतार जायगी। पर मालूम हुआ है कि उसके कपड़े नहीं हैं। सुनकर मालकिन के कमरे की दहलीज पर सिर नवाते समय उसने अपनी गांठ के कुल पौने दो-रुपये निकाल कर रख दिये । यह देखकर मालकिन आग-बबूला हो गई। फुफकार कर अपनी जगह से उठ आकर लात से सब पैसे दूर फेंक दिए और उसे फौरन घर से निकल जाने को कहा और अपने सामने से हट जाने पर भी तरह-तरह के दुर्वचन मुह पर लाकर वह बड़बड़ाती रही । वह स्त्री बिना कुछ कहे फेंके हुए पैसे बीन कर किसी-न-किसी काम में दूर हो रही। खैर, वागीश उसे ताँगे में बिठा कर चला और रास्ते में बीस रुपये उसे सौंप दिये । देने के साथ उसे बहुत सख्त-सुस्त भी कहा । स्त्री ने रुपये ले लिए और चुप रही। वागीश ने कहा, "तुमको शर्म पानी चाहिए कि एक इज्जत की नौकरी मिलती थी सो तुम को नहीं सुहाई । मैं जानता हूँ कि तुम फिर वही हाथ फैलाती फिरोगी। पर, तुम में गैरत होगी तो, बीस रुपए ये जो तुम को दिये हैं, इसके बाद बैठ कर कुछ काम-हीले से लगोगी। यह नहीं कि बेहया-सी घूमो और भलेमानुसों को तंग करो , एक शरीफ़ आदमी ने तुम्हें ऐसी इज्जत से रखा, खाना-पहनना दिया, ऊपर से मेरी खातिर दस रुपये माहवारी देने को तैयार हुए और तुम ऐसी कि उनके उपकार को एक नहीं गिना । तुम्हारे काम से मैं समझा था कि तुम में समझ होगी । लेकिन खैर जाने दो। यहाँ रहती कहाँ हो ?"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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