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________________ १७८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग "गेंदो।" सुनकर वागीश फिर चुप पड़ गया । थोड़ो देर बाद बोला, "हां, तो अब चली जाओ, कल मुझे जाना है। इनके ऊपर तुमको नहीं रहना चाहिए।" उसे चुप ही खड़ी देख पूछा, "क्या कहती हो ?" स्त्री ने जो कहा उसका आशय था कि कल मुझे वहीं स्टेशन ले जाकर छोड़ देना, अकेली में रास्ता नहीं जानती। साथ कल इसे स्टेशन ले जाना होगा, यह बात वागीश को बहुत अप्रिय हुई । स्टेशन भी क्या कोई मुहल्ला है ! स्टेशन पर घूमती रहकर यह औरत विष ही फैलायेगी, और क्या करेगी, आदि बातें मन में लाकर वागीश ने उसे डांटा, समझाया, उपदेश दिया। सब वह स्त्री पीती चली गई। आखिर बहुत पूछने पर उसने मुह खोला ही तो पता चला कि उन्नीस रुपये एक कर्ज के उसे जमा करने हैं। वह रकम दी जाय तब भीख मांगना वह छोड़ सकती है। वागीश के जी में तो पाया कि कहे कि तुम चाहे नरक में पड़ो, मुझ से मतलब ? भीख मांगना छोड़ोगी तो किसी पर अहसान नहीं करोगी, जो ये उन्नीस रुपये जमा होने की बात कहती हो। काम करो और पसीने में से धेला-पाई जोड़ कर्ज चुकानो , इत्यादि। पर वागीश ने कहा कुछ नहीं। ___इलाहाबाद में "छाया" अखबार का मशहूर कारोबार है। अगले दिन ग्यारह बजे वागीश उसी के दफ्तर में बैठा था । नाम की चिट मैनेजर-साहब को भेज दी गई थी और वह याद किये जाने की प्रतीक्षा में था। क्लर्कों की कतारें काम कर रही थीं और घड़ी चल रही थी। सब, व्यस्त थे । वागीश अकेला था कि कब पूछा जाय । आखिर उसने सोचा कि कारोबार बड़ा है, फुर्सत कम है, देर होनी
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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