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________________ दर्शन की राह ११६ "क्या प्रार्थना करती हो?" "कि तुम्हें सुबुद्धि दें।" "और दुबुद्धि वाले मुझको तुम प्रेम नहीं कर सकतीं, यह भी न?" “यह तुम्हें क्या हो गया है ? मैं नहीं तो किसे प्रेम करती हूँ ?" "शायद भगवान को प्रेम करती हो। सुनो सुधा, अगर मुझ में विश्वास रखकर मुझे तुम तनिक भी प्रेम कर सको तो हो सकता है कि मैं एकदम गया-बीता प्राणी न भी निकलू।" । लेकिन इस बात को सुधा जैसे समझ नहीं पाती थी। कहती, “यही तो तुम्हारा रोग है । तुम मुझे भूल क्यों नहीं जाते हो ? देखती हूँ, मैं ही तुम्हारा सत्यानाश कर रही हूँ। मैं सत्यानासिन यहाँ से उठ जाऊँ तो भला हो।" ___ में समझाता । कहता कि सुधा, यह क्या कहती हो ? तुम समझती क्यों नहीं हो ? तुमको क्या नहीं मिला है ? फिर तुम ऐसी क्यों होती हो ? ___ बोली, "जिसका पति निकम्मा हो उसको यहाँ क्या सुख हो सकता है, बतानो तो।" ___मैंने कहा कि तब तो दुःख मुझ निकम्मे आदमी का हक है। तुम दुःख क्यों उठाती हो ? सुधा ने कहा कि तुम जानते हो कि तुम पढ़े-लिखे और विद्वान् हो । लोग जाने क्या क्या आशा तुम से रखते हैं। और तुम को बस प्रेम की बातें हैं । शर्म के मारे किसी को मुह दिखाने लायक भी तो नहीं रह गयी हूँ। मैंने कहा कि सुधा, बता सकती हो, कि मैं किसके लिए निकम्मे के सिवा कुछ और बनू ? ___सुधा मेरी ओर देखती रह गयी । अनन्तर बोली, "फिर तुम ऐसी ही बात करने लगे ? तुम क्यों नहीं जानते कि मुझ पर क्या बीतती
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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