SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातथी भाग ] मत दो । सुधा, मेरी सहायता क्यों नहीं करती हो ? आश्रो, मुझे सब भूलने में मदद दो ।" सुधा ने कहा, "यह तुम्हें क्या हो गया है ?" मैंने कहा, 'सुधा, मैं शरीर के भीतर की बात नहीं देखना चाहता । भीतर आत्मा है, यह जानने तक भी नहीं ठहरना चाहता । क्योंकि भीतर श्रात्मा तो पीछे होगी, पहले तो हाड़, माँस और रुधिर है । उस बुड्ढ़े को हमने देखा तो था । इससे उस शरीर से इन्द्रिय द्वारा प्राप्त होने वाले लावण्य तक ही हम बस करके क्यों न रहें ? इसी से सुधा, मैं चाहता हूँ कि तुम कर्तव्य का ध्यान चाहे छोड़ दो लेकिन अपने प के ऐश्वर्य को समझने लग जाओ । तुम रूपगविणी बनो न । ऐसी बनोगी तो मुझे भी अपने विजय गर्व का सुख लाभ होगा ।" सुधा मेरी बातों को सुनती रही, बोली, "ऐसे कब तक चलेगा ?" मैंने कहा, "जब तक भी चल सके तभी तक बहुत है ।" सच यह है कि सुधा के विषय में मुझे इधर ढारस कम होता जा रहा था । वह देवदुर्लभ-सी बनती जाती थी, जाने श्रागे क्या हो ? जब तक किंचित भी उसमें मानवीय है तब तक अपने ही हाथों अपना सौभाग्य में क्यों कम करूँ ? यह भी मुझे प्रतीत होता था कि मेरे इस मोह के कारण सुधा में मेरे प्रति अनुरक्ति बढ़ती नहीं है । उत्तरोत्तर ऐसा लगता था कि मानो वह अब छूटी, अब छूटी। मानो अपने मोह के कारण ही उसके मन से में उतरता जाता था और वह जैसे उसी के जोर से निर्मोह की ओर बढ़ती जाती थी । परिणाम यह हुआ कि परिवार का काम धन्धा डूबने पर आ गया । सुधा ने मुझे बहुत चेताया । कहा, “ माँ क्या कहती हैं, जानते हो ? कहती हैं कि मैं चुड़ैल हूँ, जिसने तुम पर जादू किया । तुम आँख खोल कर देखते क्यों नहीं हो कि इस घर में मेरा जीना दूभर हो रहा है ? मैं रोज भगवान् से तुम्हारे लिए प्रार्थना करती हूँ ।"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy