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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवी भाग ] मुझे बैठा-का-बैठा देख बोली, "लेट न जाओ। अभी बहुत सफर करना है ।" मैंने हँसकर कहा, "सफर मुझे ही करना है । तुम्हें तो कुछ करनाधरना है ही नहीं ।" बोली, "मेरा क्या है, पर तुम लेटकर थोड़ी नींद ले सको तो अच्छा है ।" मैं प्रबोध, मुझे कुछ नहीं सूझा। और देखता क्या हूँ कि मैं लेट गया हूँ और मेरा सिर उन्होंने आराम से गोद में ले लिया है । ११२ हठात् मैंने आँखें मींच लीं । चाहा कि सोऊँ, पर नहीं कह सकता कि मैं सो सका । फिर भी आँख मेरी मुदी रही और में जागते सपने लेने लगा । ... पर यह क्या ? झटका कैसा ? गाड़ी एकदम रुकी क्यों ? सिगनल न हुआ होगा । लेकिन नहीं कुछ और बात है । मैं उठा । उठ कर झाँका । देखता हूँ कि लोग उतर रहे हैं और एक तरफ बढ़े जा रहे हैं । जिधर जा रहे हैं वहाँ चार-पाँच प्रादमियों का झुण्ड- सा खड़ा है । बात क्या है । जाते प्रादमियों से मैं पूछने लगा, “भाई क्या बात है ?" पहला आदमी तो बिना बोले तेजी से आगे बढ़ गया । फिर दूसरे से पूछा, "क्यों भई, क्या है ?" “क्या मालूम ?" तीसरे से, "क्यों भई, है क्या ?" “रेल के नीचे कोई आ गया सुनते हैं ।" श्रो, यह है ! में अपनी जगह श्रा बैठा । चलो, होगा कुछ। यह तो रोज की बात है । पर रेल यहाँ देर कितनी लगायेगी ? चलती क्यों नहीं ? मुझे बुरा मालूम होने लगा कि गाड़ी इतनी मुद्दत ठहरी क्यों है ?
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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