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________________ दर्शन की राह मैंने कहा, "मैं बिछा तो दे रहा हूँ । तुम रहो न ।" पर मेरा पौरुष न चला। उन्होंने नहीं माना, नहीं माना । बिस्तर बिछा दिया और बोलीं, “बैठो ।" १११ मैंने कहा, "मैं तो उधर दूसरी तरफ बैठ जाऊँगा । तुम श्राराम से लेट सकती हो ।” "उधर मैं बैठी जाती हूँ ।" कहकर वह दूसरी बेंच पर जाने को उद्यत हुईं। उस समय में हार न मान सका । उनको हाथ से पकड़कर बैठाते हुए मैंने कहा, "यह क्या बैठो भी ।" बैठ तो गईं, लेकिन बैठते-बैठते उन्होंने जोर से मेरे कोट का छोर पकड़ लिया। कहा, “तुम भी बैठो।" लाचार में पास बैठ गया। बैठ तो गया लेकिन अब ? उस समय शब्द क्षुद्र हो गये और भाषा ने मौन का प्राश्रय लिया । कुछ क्षण आँखों ही आँखों में रह गये । उस दर्शन में अमित भाव था । दो व्यक्तियों के बीच की अथाह दूरी आँखों की राह मानों पल में पार हो गई । अब क्या शेष था ! ...... .. मालूम हुआ वेदी का अभिषेक सम्पन्न हो गया । स्वप्न अब उड़ने की आवश्यकता में नहीं हैं । वे सब पंक्ति बाँध टप टप टपक पड़ने को उद्यत हैं कि किसी के चरणों को छू सकें। उनकी स्पर्धा भक्ति में अब सार्थक हो आई है । वायव्य से अब तरल बनकर मानो स्वप्न स्वयं अपने को पाते जा रहे हैं । मैंने कहा, “सुधा सो जाओ ।" "में ? मैं तो ठीक हैँ । लो, तुम लेट जाओ ।" कहने के साथ ही वह पीछे सरक गई, ऐसे कि मैं लेट सकता और हाँ, कोई बात नहीं जो सिर गोद में आ जाय । नहीं, नहीं, कोई हर नहीं है । hcG उसमें
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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