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________________ १८ जैनेन्द्र की कहानियां [सातवां भाग] देख लो-नहीं है। पर क्या है ? नहीं जानती।...वह कोठरी में माकर चटाई पर औंधे मुह पड़ गई, और सिसकने लगी। माँ की आवाज आई-"रुक्मी !" और रुक्मिणी ने उठकर द्वार की कुण्डी लगा ली, और फर्श पर बिछी चटाई पर जोर से माथा ठोककर वैसी ही पड़ गई। ... माँ कहती रही-रुक्मी,-"यो रुकमनी !-कहाँ गई लड़की, जाने..." ___रुक्मिणी ने उठकर छत को देखा, आँसू ढालते हुए, दोनों हाथों को जोड़कर कहा, “ो, मेरे भगवान् !" और छाती मसोसकर खड़ी हो गई, कुण्डी खोलकर बाहर आई, और बड़ी तत्परता के साथ मां के सामने पहुंचकर बोली, “क्या है, माँ ?" "तू कहाँ थी ?" "कहीं नहीं, यहीं थी।-काम है, माँ ?" । "हाँ"-और माँ ने जो काम बताया, करने में लग गई। पर, विधि की गति अपरम्पार है । ब्याह नहीं हुआ, और ब्याह से एक रोज़ पहले, उसने देखा, अपने मां-बाप के घर से टूटकर, रोती हुई, दीना के कन्धे से लगी और बाहुओं में थमी, वह उसके साथ चली जा रही है।-नहीं, उसको सुख नहीं है। उसके जी में दर्द है; कहाँ जा रही है, उसको पता नहीं है; फिर क्या होगा, कुछ उसको खबर नहीं है;-पर, वह उसके हाथों में थमी, कन्धे से लगी,-जा रही है।... वह समन्दर में लेजाके पटक देगा ?-क्या बुरा है; पटक दे; वह अाँख मदकर, उसका नाम लेती, डूब जायगी। वह जा रही है। और दिल्ली है शहर, जो पास है, और जहाँ सब खपता है। वहीं
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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