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________________ ६७ रुकिया बुढ़िया दिल्ली आये-हफ्ते आया-जाया करता था, और कल-पुर्जे की बड़ी बातें सीख गया था । नाम था दीना ।... सो, जब व्याह की तैयारियों की बातें होने लग गई, तब दीना ने बड़े चुपके से कमरे में प्रवेश किया, जिसमें उस वक्त दर्पण के सामने खाट पर रुक्मिणी बैठी थी। वह अकेली थी, और नहीं, दर्पण में नहीं देख रही थी, दर्पण की सुधि उसे नहीं थी, सोच में मुरझी, मुह लटकाये बैठी थी। दीना ने कहा, "रानी ?" रुक्मिणी ने सुन लिया, पर देखा नहीं, बोली नहीं। दीना ने कहा, "मेरी रानी" रुक्मिणी के आँसू छलछल कर आये, और फेर कर मुह जो चादर में उसने ढंका, तो फफक-फफक कर रो उठी।। अब तक इस एकान्त में, कुछ उसके भीतर से उठ कर घना होता हुआ व्याप रहा था। परिभाषाहीन, लक्ष्यहीन, अर्थहीन-सांध्यवेला में धरती की छाती में से निकलती हुई उसाँस जैसा। रात्रि में परिव्याप्त शीतलता से छकर फिर वह उसाँस आप-ही-पाप धरती के हरे रोमों पर गिरकर बूंद-बूद मोती बना पा ठहर जाता है-वैसा ही दीना के सम्बोधन से एकाएक उसका उच्छ्वास तरल होकर झर-झर-झर उठा । दीना खो-सा गया । खाट पर पाकर एकदम उसे गोद में सम्भाला, कहा, "क्या है, मेरी रानी ?-बोलो।" और रानी गोद में रही, बोल नहीं सकी, फफकती रही। और फिर एक साथ उठकर जाने को हो गई। दीना ने उसे कठोरतर आलिङ्गन में बांध लिया। रुक्मिणी ने जोर से कहा, "हटो," और वह अपने को जैसे, छीनकर अलग हो गई, और चली गई। नहीं, रुक्मिणी को इससे प्रसन्नता नहीं है । अरे, उसका जी चीरकर
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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