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________________ ७८ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] बेचारा भक्त गायक है। पर यह कात्यायन भी कभी तुमको या मुझ को याद करता है ? शास्त्रार्थ में दिन-रात रहता है, कभी तुम्हारी शरण में जाने की भी उसने इच्छा की है ? अपने अहंकार में ही बन्द रहता है।" शिव ने कहा, "कह दिया, तुम नहीं जानतीं । इससे चुप रहो।" पार्वती बोली, "तुम तो भोले हो, जो वरदान माँगे, दे देते हो। पीछे चाहे वह तुम्हारा नाम ले ! मधुसूदन को तुम्हारी रट के सिवा दूसरा काम नहीं है। वह अकेला माँगता फिरता है और भजन गाता है । यह कात्यायन शास्त्रों के वेष्ठनों से पार तक निगाह नहीं लाता। वेष्ठनों में शास्त्रों को और शास्त्रों में अपने को लपेट कर वह जगद्गुरु बना हुआ है। या तो अपनी सृष्टि को मुझ से दूर रखो या अगर चाहते हो कि मैं उस पर आँख रखू और स्नेह रखू तो इस अंधेर को हटाओ। तीन नेत्र लेकर भी सृष्टि की तरफ से ऐसे सोते तुम क्यों रहते हो ? ऐसा भी नशे का क्या प्रेम ! कुछ व्यवस्था से रहो और सृष्टि को व्यवस्था से रखो। मैं बताओ क्या सम्हालूं । कहीं कुछ घर जैसा हो भी। न भोजन का ठीक, न बसने का ठीक । धतुरा खाओगे, खाल पहनोगे, साँप का श्रृंगार करोगे, धरती को उजाड़ोगे। मैं कहूँगी तो कहोगे कि तुम नहीं जानतीं, चुप रहो। और छोड़ो, पर यह कात्यायन जो स्त्री की निन्दा करता है। उस का गर्व गिरेगा नहीं तय तक मैं नहीं मानूंगी।" शङ्कर बोले, "तुम नहीं समझती हो पार्वती । उसकी निन्दा में वन्दना है। आत्मरक्षा में उसकी वन्दना निन्दा का रूप लेती है । उसके गर्व में मुझे हर्ष है। गर्व काल के निकट है। स्नेह में मुझे भय है। स्नेह से सृजन होता है ? संहार में गर्व ही इंधन है । पार्वती, तुम दुर्गा, चण्डी, काली हो इसी से मेरी हो । गीत गाकर
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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