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________________ जनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] लकड़ी, लोहा, मिट्टी, पत्थर । और उसको लाने के लिए और कलें आई । और उनको यहाँ से वहाँ धरने के लिए और कलें आई। और वर्दी-वाले अफसर आये और चपरास-वाले चपरासी श्रागए। और दफ्तर खुले और डीपो खुले, और अस्पताल और पानीघर और टट्टीघर आदि भी खुले । और एक ऐसा घर भी खुला जहाँ से भूखों को मुफ्त रोटी का दान दिया जाता था। रोग फैले तो उन्हें दमन करने के लिए डाक्टर बने। झगड़े उठे तो उनके मिटाने के लिए जज और वकील जनमे। और दुष्ट का दमन और साधु का परित्राण करने के लिए नीतिज्ञ जनों ने कानून पर कानून खड़े किये । जिस पर बद्धपरिकर पुलिस आई और मदिरालय आये और द्यत-गृह आये और "मतलब, काम जोरों से और व्यवस्था से और शान्ति से होने लगा। __एक दिन महाराज सीधे-सादे कपड़े पहने उधर जा निकले। उन्होंने देखा-नये महल की जगह के और उनके बीच में अब जाने कितना न अन्तर प्रतीत होता है ! और जाने कितने न आदमी उस अन्तर को भरने के लिए मध्य में खप रहे हैं ! वह चलते गये। वह देखना चाहते थे कि महल का क्या बन रहा है। ठीक स्थान पर पहुँचकर उन्होंने देखा कि धरती में दूर-दूर तक गहरी और लम्बी खाइयाँ खुदी हैं । गहरी इतनी कि उनमें सीधे और पूरे कई आदमी समा जायँ । वे आपस में कटी-फटी ऐसी धरती में बिछी हैं कि मानो कोई षड्यन्त्र फैला हो, जैसे वह कोई भयंकर चक्र हो । धरती को भीतर तक पोला कर डाला गया है, कि जगह-जगह मोरियाँ-सी बन गई हैं। यह सब देखकर राजा का मन विश्वस्त नहीं हुआ जिसका सिर खुली हवा में हो और जिससे आसमान पास हो जाय, वह महल क्या ऐसा होता है ?
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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