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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ] मन्त्री, "अनुज्ञा की देर है, हम सब सेवक किसलिए हैं ?" महाराज, "वह देर मत मानिये ! बन सके तो महल क्यों न बनाने लग जाइए । प्रजा के सुख में बिलम्ब अनुचित है ।" मन्त्री, "जो आज्ञा । किन्तु आपने कुछ अहकाम ऐसे जारी कर दिये हैं कि हमारे हाथ बँधे हैं। राजकोष से इस बारे में व्यय का सुभीता, महाराजमहाराज, “राजकोष” 95 मन्त्री, “पचास लाख रुपया काफ़ी होगा, महाराज । " महाराज, "मन्त्री, आपका अनुमान कहीं कम तो नहीं है ? उस द्रव्य से स्वप्न-सा महल बन जायगा ? फिर सोचिए, मंत्री जी ।" मन्त्री “हाँ महाराज, बल्कि कुछ पचास से भी कम लगाने की कोशिश की जायगी ।" ·३८ महाराज, “तब तो स्वप्न-सा महल आप मुझे क्या दीजियेगा । पचास लाख तो, सुनते हैं, इसी महल में लग गये थे । क्या यह विस्मय-सा सुन्दर है ?” मन्त्री, "महाराज, निश्चय रखिए, महल पूर्व होगा और पचास लाख रुपया उसके लिए काफ़ी हो जायगा ।" महाराज “मन्त्री जी, आपका हिसाब सुन्दर नहीं है । सुनिये, हमारे राज्य की जनसंख्या दस लाख है । आपके रहते हुए हमारे वे लोग खुशहाल तो होंगे ही। इसलिये प्रत्येक पर दस दस रुपये का हिसाब तो भी पड़ना चाहिये । महल में लगाने के लिये एक करोड़ से कम की बात आपके मुँह से शोभा नहीं देती, मन्त्रिवर ।” मन्त्री, " जो महाराज की आज्ञा ।” 1 महाराज, “मेरी श्राज्ञा की बात छोड़िए । मैं तो राजा हूँ । महल वह मेरा होगा । पर उसे बनाने का काम तो आप लोगों द्वारा
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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