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________________ वह बेचारा २१५ मुझ में से वापिस खींच ले । हे ईश्वर ! क्या मेरी इसी प्रकृतज्ञता तेज भी मुझ से छीन लिया गया है। हे परमात्मा ! रा तेज था ? क्या जहर को भी अस्वीकार करने नहीं कर सकेंगे, ओ परमात्मा ?” और मालूम हुआ कि वाणी में तो परमात्मा सदा मौन ही रहता है | कृत्य में ही वह व्यक्त है । जगत् की घटना ही जगदीश्वर की वाणी है। और कृत्य में इस भाँति व्यक्त है । और घटनागत वाणी वह है कि उस सर्प को लेकर सँपेरे को अपनी रोजी पाने में सुविधा हो गई है और सँपेरा और उसकी स्त्री - कृतज्ञ होकर भगवान् को धन्यवाद देते हैं कि भगवान् ! तू सबका पालनहार है ।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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