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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ] सर्प ने सभी कुछ कर दिया और फिर वह कुण्डली भरकर पूँछ में डालकर वैसे ही बैठा रहा । तभी एक व्यत्ति मुँह देखने की इच्छा प्रकट की । इस महत्वपूर्ण, अनोख की चलते समय क्या आन-बान रहती है, यह तो देख २१४ सँपेरे ने कहा, "अच्छा बाबू ।" और बीन की नोक उसके शरीर पर ठोककर सँपेरे ने कहा, "जरा चाल दिखा मेरे राजा बेटे, बाबू को खुश कर दे । तुझे बड़ा इनाम मिलेगा ।" बड़े पुरस्कार की वाँछनीयता एकदम उस मतिमन्द सर्प की समझ में शायद नहीं आई । वह चोटें सहता हुआ भी मानो सत्याग्रहपूर्वक वहाँ जड़ की भाँति ही पड़ा रहा। कुछ देर बाद हाँ, उसे बाबू को खुश करने का लाभ अवश्य विदित हो आया दीखा । तब उसने अपनी देह की कुण्डली को खोला और सरकना शुरू किया । सँपेरे ने फण के पास बीन का टहोका देकर कहा, "सलाम कर बाबुको । सलाम कर ।" साँप ने फर उठा दिया । इसी भाँति कुछ दूर चलकर चलाकर साँप वैसे ही मरोड़ी, मारकर आ बैठने लगा । सँपेरे ने उसे बहुत शाबासी देते हुए हाथों में उठा लिया और उसे लिये लिये वृत्ताकार एकत्रित लो समक्ष घूमता हुआ वह कहने लगा, “दाता सब का भला कोई फटा-पुराना कपड़ा मिल जाय, राजा ! और पेट के लिए दो रोटी ।" लौटकर साँप को जब उसने घर में छोड़ा तब ढक्कन के नीचे अपने अँधेरे घर में उस साँप ने अपने खण्डित दर्प की घूँट पीकर कहा, "हे जगदीश्वर ! तैने मुझे कालकूट विष दिया था । उसे मैंने कृतज्ञ भाव से स्वीकार न कर लेकर तुझे लाचार किया कि तू उसे
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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