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________________ नीलम देश की राजकन्या १५१ हैं। नहीं तो हम होते ही क्यों ? तू आयेगा, और मैं टूटकर कृतार्थ हूँगी!" ___ चारों ओर होता हुआ अट्टहास चीत्कार का रूप धर उठा। मानो सहस्रों कंकाल दाँत किटकिटा कर विकट रूप से गर्जन कर रहे हों । हवा प्रचण्ड हो उठी। समुद्र दुर्दान्त रूप से महल पर फन पटक-पटक कर फूत्कार करने लगा । जान पड़ा, सब ध्वंस हो जायगा। इस आतङ्ककारी प्रकृति के रूप के नीचे राजकन्या भय से काँप-काँप गई । पर वह जपती रही, "तू है । तू है।" थोड़ी देर में किसी ने उसके भीतर ही जैसे हँसकर कहा, "आई बड़ी राजकन्या ! पगली, ढिट-विट् !! मैं कहाँ अलग हूँ ? अरे कहीं मेरे सिवा कुछ है भी जो डरती है ? कह क्यों नहीं देती कि मैं नहीं हूँ? क्योंकि मैं तो तेरे 'नहीं' में भी रहूँगा। सुना ? अब आँख खोल और हँस।" उस समय राजकन्या ने दोनों हाथों से पूरे जोर से अपने वक्ष को दबा लिया। उसके सारे गात में पुलक हो पाया। वह यह सब कैसे सहे ? कैसे सहे ? उसके मुंह से हर्ष की एक चीख निकली। मानो वह पागल हो गई है। क्षण-भर बाद उसने आँख खोली। देखती है, सब ओर वसन्त है और महल के द्वार में से किन्नरी बालाएँ भाँति-भाँति के उपहार लिए बढ़ती चली आ रही हैं। . पास आने पर राजकन्या ने जाने कैसी मुसकान से कहा, "तुम आ गई ? यह क्या-क्या लिए आ रही हो ?" किन्नरी बालाओं ने कहा, "उपहार है। ये राजपुत्र की इच्छानुसार हमें लाने को कहा गया है।"
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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