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________________ १३८ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] स्वयं ही प्रश्न बन गए । तब स्तब्ध, मूक, ऊपर आसमान में टकटकी बाँधे, खुले मुंह, वह पाषाण की तरह स्थिर हो गए। मानों आँखें जिस बिन्दु की ओर हैं, शरीर का रोम-रोम उसी ओर लौ लगाए अवसन्न और प्रतीक्ष्यमान है। कुत्ता कुछ रोज़ से अपने साथी की हालत पहिचान कर बेचैन रहने लगा था। आज जब देखा कि उसका साथी न हिलता है न डुलता है, न उसे खाने की सुध है न खिलाने की, एकटक जाने वह क्या देख रहा है ! तो पहिले तो उसका ध्यान बटाने की कोशिश में वह इधर-उधर झाड़ी के आस-पास जाकर रह-रहकर यों ही भोंकने लगा। इसमें अलफल होकर वह उनके पास से और पास आता चला गया। किसी भी तरह जब उनसे चैन न पड़ता दीखा तो कान के पास आकर भोंकने लगा। ___ इस पर जिनराजदास का ध्यान भंग हुआ । उन्होंने झिड़क कर कुत्ते को कहा, "हट, दूर हो ।” कुत्ता दूर होगया । पर फिर साथी की पहले सी हालत देखकर वह चिन्ता में घुलने लगा। उसने एक शरारत की थी। कई दिनों का भूखा होने से कही पड़े एक माँस के टुकड़े को वह चाटने लगा । सहसा उसे विचार हुआ कि मेरा साथी आदमी भी तो भूखा है । इस पर आहिस्ता से मुह उठाकर वह टुकड़ा उसने पास एक झाड़ी में छिपाकर रख दिया था। सोचता था कि उन्हें चेत होगा तो सामने रख दूंगा। मेरा कुछ नहीं, पर वह भूखे हैं। किन्तु जिसकी खातिर वह ऐसा सोच रहा था उसी से सहसा झिड़की खाकर वह निरुत्साहित हो गया। बैठे-बैठे उसने विचारा कि यह बिचारे भूख की वजह से ही मुझ पर नाराज हुए होंगे। चलू, उस टुकड़े को उनके पास ही ले
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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