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________________ लाल सरोवर १२३ अगर तुम सच्चे धार्मिक हो तो यह जिद तुम कभी नहीं रख सकते कि दूसरे आदमी तुम्हारी ही भावना रखें और सोने को लेकर लाभ न उठावें । तुमको यह जानने की आवश्यकता है कि किस प्रकार सृष्टि में स्वर्ण तृष्णा पैदा करता है। तृष्णा में चैतन्य होता है। चैतन्य द्वारा ही ईश्वर की पूजा हो सकती है। जगत् में जो कुछ लहलहाता हुआ दीखता है-स्त्री की सेवा, बालक की क्रीड़ा और बड़ों का वात्सल्य-वह सब उसी अमृत के सिंचन से है । स्वर्णमाता लक्ष्मी का प्रसाद है। बड़े कारोबार चल रहे हैं, सरकारें चल रही हैं, उद्धार चल रहा है, सुधार चल रहा है, जातियाँ चल रही हैं, धर्म चल रहा है । जानते हो, किस मन्त्र से ? लक्ष्मी के स्वर्णमन्त्र से ही वह सब हो रहा है। देखो वैरागी, समझ से काम लो। तुम्हें कुछ नहीं करना है। तुम भक्ति में रहे जाओ। बाकी झंझट मैं भुगतता रहूँगा।" मङ्गलदास ने अपनी बात खतम करते हुए कहा, "सुना तुमने ? अब तुम तय कर लो अगर तुम अपनी बात पर अड़े रहे तो वैसा होगा। तुम ईश्वर के पास जाना चाहते हो न ? तो अच्छी बात है। मौत के हाथों देकर मैं यम देवता से कह दूंगा कि इसको ईश्वर के पास ले जाओ और मेरा कहा करोगे तो तुम भक्ति और सुख सब पाओगे। कोई तुम्हें कमी न रहेगी और मुझे माला-माल करने के पुण्य के भी तुम भागी होगे।" | वैरागी सब सुनता हुआ मन में कह रहा था, "हे भगवान् , तुम्ही हो । पापी भी तुम्हीं में होकर है। मङ्गलदास ने पूछा, “बोलो क्या कहते हो ?' वैरागी मन में कह रहा था, "पाप को अपनी क्षमा में सहने वाले
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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