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________________ जेनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ] वैरागी, "जब से मुझे मालूम हुआ है, मैंने भगवान् से प्रार्थना की है और मेरा यह अभिशाप प्रभु ने कृपा-पूर्वक दूर कर दिया है । अब मुझ से स्वर्ण का सम्बन्ध नहीं रहेगा ।" मंगलदास ने गुस्से में कहा, "क्या ?" वैरागी ने कहा, "आपको आगे मुझ पर रोष करने के लिए कोई कारण न होगा ।" १२२ तो मंगलदास को बड़ा गुस्सा आ रहा था । उसने हिसाब लगा रखा था कि दो वर्ष के अन्दर वह कम-से-कम आस - पास में तो सबसे बड़ा धनी हो ही जायगा । लेकिन यहाँ अभी मेरी सोने की खान खतम हुई जा रही है। उसने गुस्से में भरकर कहा कि वैरागी, तुमको हया शर्म नहीं है । मैंने कितने दिन तुम्हें साथ रखा । अब श्राज तुम मुझे इस तरह धोखा देना चाहते हो । तुम्हारा क्या इरादा है ? क्या तुम यहाँ से चले जाओगे ? याद रखो, मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा ! वैरागी ने कहा, "अब आप क्या आज्ञा देना चाहते हैं कि मुझे क्या करना चाहिए ?” 1 मंगलदास विद्वान् पंडित भी था । उसने कहा, "प्रार्थना करो कि ईश्वर फिर वैसे ही हर क़दम पर तुम्हारे अशर्फी पैदा किया करे । तुम मूर्ख हो और कुछ नहीं जानते हो । अगर तुम मुक्ति चाहते हो तो यह तुम्हारा स्वार्थ है । तुम इतनी जल्द मुक्त हो जाना चाहते हो । देखो, मैं तुम्हें धर्म बताता हूँ । अपने से स्वर्ण पैदा होने दो। उस स्वर्ण से दुनिया का काम निकलता है। दुनिया की रंगों में उससे तेजी आती है। तुम को स्वर्ण में लगाव नहीं है, बस इतना काफ़ी है । तुम उससे कुछ लगाव न रखो। लेकिन सच्चा धर्मात्मा दूसरे की आत्मा का ठेका नहीं लिया करता है । इसलिए
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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