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________________ लाल सरोवर १०७ मंगलदास ने कहते-कहते जब वैरागी के लिए चैन का अवसर ही नहीं छोड़ा, तो वैरागी ने कहा, "तुम क्या चाहते हो ?" ____मंगलदास बोला, “यहाँ के लोग अब आपको धर्म-ध्यान नहीं करने देंगे। मैं जो आपकी सेवा में आ गया हूँ इससे वे मुझ से दुश्मनी रखने लगे हैं। इसलिए आप इस नगर से कहीं दूसरी जगह चलिये।" वैरागी ने कहा, "तुम मेरे पीछे घर-गृहस्थी क्यों छोड़ रहे हो ?" __ मंगलदास, "महाराज, घर-गृहस्थी का बन्धन तो माया का बन्धन है । मुझे तो आपकी सेवा में सुख मिलता है । वैरागी, “घर में तुम्हारे कौन-कौन हैं ?" मंगलदास, "माता है, स्त्री है।" वैरागी, "उनको अकेला नहीं छोड़ना चाहिए । जाओ, उनकी चिन्ता करो। तुम्हारे पीछे उनका गुजारा नहीं तो कैसा होगा ?" ___ मंगलदास, “महाराज यह कैसी बात करते हैं ! गुजारा कौन किसका करता है । सब ईश्वर का दिया खाते हैं । आप ही की शिक्षा तो है कि सब का पालनहार वही है । यह तो अहंकार है कि मैं किसी का पालन कर सकता हूँ। मुझे अब संसार से मोह नहीं है । मैं तो आपके चरणों का सेवक होकर प्रसन्न हूँ।" वैरागी सुनकर हँस दिया । बोला, "अच्छा समझो अपनी माता और पत्नी की सेवा भी मेरी ही सेवा है। यह समझकर जाओ, उन्हीं के पास रहो।" वैरागी के ये वचन सुनकर मंगलदास को बड़ी निराशा हुई। उसके मन में तो महल बनने लगे थे। इन वचनों से उनकी बुनि
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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