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________________ १०२ जनेन्द्र की कहानिया [तृतीय भाग] बात है । देखते हैं तो तीन जने आपस में झगड़ रहे हैं और रास्ते पर कुछ पीले सोने के टुकड़े पड़े हुए हैं। वैरागी को मुड़ते देखकर झगड़ने वाले तीनों श्रादमी चुप हो गये और उनको सिर झुका दिया । वैरागी वहाँ खड़े देखते रहे । उन्होंने पूछा, "क्या बात है ?" जब तीनों में से कोई कुछ नहीं बोला, तब वैरागी ने मंगलदास को इशारा किया कि इन पीले टुकड़ों को उठाओ और इन दोनों को दे डालो ___ मंगलदास ने वैरागी के कहे मुताबिक उन अशर्फियों को उठाया और दोनों को दे दी। वैरागी आगे बढ़े, लेकिन उन्हें फिर कुछ झगड़ा सुनाई दिया। इस बार बात और बढ़ गई थी। पर वैरागी ने ध्यान नहीं दिया और कोदिन की कुटिया की तरफ बढ़ते चले गये। जब वापिस चलने का समय आया तो मँगलदास आकर वैरागी के चरणों में गिर पड़ा। कहा, "महाराज, मैं आपको पैदल चलने का कष्ट नहीं होने दूंगा। मेरा सिर पाप से मलिन है । अपने कन्धे पर बिठाकर महाराज को मैं ले चलूँगा, तो मेरा तन इससे पवित्र होगा।" वैरागी यह देख हँसते हुए खड़े रह गए। असल में मंगलदास यह नहीं चाहता था कि अशर्फ़ियाँ बनें तो किसी और को भी मिल जायँ। उसने अाग्रहपूर्वक वैरागी को कन्धों पर बिठाया और दूसरे लोगों को विजय के भाव से देखते हुए उन्हें शिवालय तक ले आया। लोगों को यह बड़ा बुरा मालूम हुआ। लेकिन वे कर क्या सकते थे । वे सभी अशर्फियाँ चाहते थे, पर कोई यह नहीं चाहता
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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