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________________ १०० जैनेन्द्र की कहानिया [तृतीय भाग] कि यहीं वह कोदिन वेश्या अपनी आयु के अन्तिम दिन गिन रही है। मंगलदास दूर एक जगह बैठकर अपनी अशर्फियाँ देखने और गिनने लगा । वह अपने भाग्य पर बड़ा प्रसन्न था। तीन सौ से ऊपर अशर्फियाँ आज सवेरे कैसे अनायास ही मिल गई । उसे तो उन्हें साथ बाँधे रखना मुश्किल हो रहा था। __इतने में देखता क्या है कि वेश्या की झोंपड़ी में से शिवालयवाले वैरागी निकले हैं । उन्होंने झोंपड़ी के चारों तरफ़ की धरती को साफ़ किया । मैला उठाकर दूर एक जगह गड्ढा खोदकर उसमें गाड़ दिया । यह सब करके फिर दुबारा वह कुटी के अन्दर गये । कुछ देर अनन्तर वैरागी बाहर आकर अपने शिवालय की तरफ चल दिये। ___ मंगलदास उनके पीछे-पीछे चला तो क्या देखता है कि जहाँ वैरागी का पैर पड़ता है वहीं एक अशी हो जाती है ! उसका मन हर्ष से भर गया । पर मुंह से उसने साँस भी नहीं निकलने दी। वह जल्दी-जल्दी अशर्फ़ियाँ बीनता हुआ वैरागी के पीछे-पीछे कुटी तक गया । लेकिन इस भाँति कि वैरागी को पता न चले । बीच-बीच में वह देखता भी जाता था कि कोई देख तो नहीं रहा है । और जब सब बीन चुका तो लौट कर सीधा अपने घर गया और सब अशर्फियों को अच्छी तरह उसने धरती में गाड़ दिया । फिर वैरागी के पास शिवालय पर आकर उनके चरणों में फलफूल रखे और कहा, "महाराज इन्हें स्वीकार करें।" वैरागी ने प्रीतिभाव से मंगलदास को देख लिया, पर बोले नहीं। मंगलदास ने कहा, "महाराज, हम संसार में कर्म-बन्ध करते
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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