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________________ ८० जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] से लड़के को इतना सिर चढ़ा दिया है। तारीफ कर-कर के आज यह हाल कर दिया है। माँ को तो कुछ समझता ही नहीं। मेरा क्या, ऐसे ही बिगड़ कर आगे कुल को दाग लगायगा तो मैं क्या जानूं । अभी हाथ में नहीं रखा तो लड़का फिर क्या बस में आने वाला है ? उचक्का बनेगा, उचक्का, और नहीं तो।। ___ उधर रमेश बढ़ा चला जा रहा था। चलने में उसके दिशा न थी,न कदमों में अगला-पिछला था।चलते-चलते वह घास के मैदान में आ गया और वहाँ एक जगह बैठ गया। धूप में इतनी तेजी न थी। धीरे-धीरे वह ढलती जा रही थी। दूर तक कटी दूब का गलीचा बिछा था । पार पेड़ों से घिरी सड़क बल खाती जा रही थी। एकाध छुटी गाय घास चर रही थी। ऊपर आसमान के शून्य विस्तार में इक्की-दुक्की चील उड़ती दीखती थी। बैठे-बैठे उसे आधा, एक, दो घण्टे हो गये । इस बीच वह कुछ खास नहीं सोच सका था । जहाँ था वहीं रहा था। उसके मन में न मास्टर था, न माँ थी। मन में उसके कुछ नहीं था। बस एक अजीब बेगानगी थी कि वह अकेला है अकेला । सब है, पर कुछ नहीं है। बैठे-बैठे गुस्सा और क्षोभ उसका सब धुल गया था। उसमें अभियोग नहीं था, न शिकायत थी । बस एक रीतापन था कि जैसे कहीं कुछ भी न हो। देखा कि एक पिल्ला जाने कहाँ से बिछड़ कर उसके आस-पास कुछ ढूँढ रहा है। वह क-कूँ कर रहा है। कभी रुक कर कुछ सोचता है, और कभी भाग छूटता है। रमेश की तबियत हुई कि वह उसके साथ खेले। जब तक पास रहा, वह पिल्ले की तरफ देखता रहा । उसकी अठखेलियाँ उसे प्यारी लग रही थीं । पर जाने वह पिल्ला उससे कितनी दूर था-इतनी दूर कि मानों उसके बीच
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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