SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनेन्द्र की कहानियों [द्वितीय भाग] मैने कहा कि मालूम तो होता है कि उसे कुछ पता है। और वह मामले में शामिल है। इस पर छुन्न की माँ ने पास बैठी हुई मेरी पत्नी से कहा, "चलो बहनजी मैं तुम्हें अपना सारा घर दिखाए देती हूँ। एक-एक चीज़ देख लो । होगी पाजेब तो जायगी कहाँ ?" मैंने कहा,"छोड़िए भी ।बेबात की बात बढ़ाने से क्या फायदा।" सो ज्यों-त्यों मैंने उन्हें दिलासा दिया। नहीं तो वह छुन्नू को पीट-पाट हाल-बेहाल कर डालने का प्रण ही उठाए ले रही थी। कुलच्छनी, आज उसी धरती में नहीं गाड़ दिया, तो मेरा नाम नहीं। खैर, जिस-तिस भाँति बखेड़ा टाला । मैं इस झंझट में दफ्तर भी समय पर नहीं जा सका । जाते वक्त श्रीमती को कह गया कि देखो आशुतोष को धमकाना मत । प्यार से सारी बातें पूछना । धमकाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, और हाथ कुछ नहीं आता। समझी न ? शाम को दफ्तर से लौटा तो श्रीमती ने सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया है । ग्यारह आने पैसे में वह पाजेब पतंग-वाले को दे दी है। पैसे उसमे थोड़े-थोड़े करके देने को कहे हैं। पाँच आने जो दिये बह छुन्म के पास हैं। इस तरह रत्ती-रत्ती बात उसने कह दी है। कहने लगी कि मैंने बड़े प्यार से पूछ-पूछकर यह-सब उसके षेष्ट में से निकाला है । दो-तीन घंटे मैं मगज़ मारती रही। हाय राम, बच्चे का भी क्या जी होता है। ___ मैं सुनकर खुश हुमा । मैंने कहा कि चलो अच्छा है, अब पाँच आने भेज कर पाजेब मँगा लेंगे। लेकिन यह पतंग-वाला भी
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy